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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय २४१ बरसों बाद वे अयोध्या में फिर आईं। उनके शील की परीक्षा करने के लिए एक गहरी खाई खोदी गई। उसमें चंदन की लकड़ियाँ भरकर आकाश तक पहुँचे ऐसी विकराल अग्नि प्रज्वलित की गई... परन्तु महासती के सतीत्व के प्रभाव से आग में प्रवेश करते ही वह आग सरोवर में बदल गई और बीच में शासनदेव द्वारा रचित सुवर्ण-कमल के उपर बैठी हुई वे सुशोभित होने लगीं। पूरी अयोध्या उनकी जयजयकार कर ‘महासती पधारो ! पधारो !' बोल रही थी।
इस समय भी संसार के स्वरूप से परिचित महासतीजी ने, आगामी सुखों के स्वप्नों से न ललचाते हुए, कर्म के विपाकों का चिंतन कर कर्मो के क्षय के लिए सर्वविरति के मार्ग पर आगे बढ़ने का निर्णय कर लिया। अपने आप ही पंचमुष्टी द्वारा केशों का लुंचन कर, रामचंद्रजी की तरफ केश फेंककर वे विरति के मार्ग पर चल पड़ी।
“धन्य है आपके सत्त्व, शील, विवेक और ज्ञान को... जैसे उन्नत मस्तक से नगरी में प्रवेश किया था वैसे ही आपने नतमस्तक होकर सभी का त्याग किया। सर्वस्व की प्राप्ति के अमूल्य क्षणों में ही आपने सर्वस्व का त्याग किया ।” ८. (६१) नंदा - श्रीमती नंदा (सुनंदा)
श्रीमती नंदा बेनातट नगर के धनपति सेठ की पुत्री तथा श्रेणिक महाराजा की पटरानी और अभयकुमार की माता थी। युवावस्था में श्रेणिक राजा अपने पिता से नाराज़ होकर बेनातट नगर चले गए थे। धनपति सेठ को नुकसान के समय श्रेणिक के कारण उन्नति हुई, इसलिए उन्होंने सुनंदा नाम की अपनी पुत्री की शादी उनसे कर दी। वह गर्भवती थी, तब श्रेणिक पुनः राजगृही चले गए... सुनंदा को