________________
२३८
सूत्र संवेदना-५ को विचार आया कि यह राजा की पुत्री ऐसे कष्टों को सहन नहीं कर सकेगी, इसलिए उसके कपड़े के पल्लव पर मायके और ससुराल का रास्ता लिखकर, दमयंती को अकेली छोड़कर वे चले गए। दोनों के बीच बारह साल का वियोग हुआ।
धर्म का शरण स्वीकार कर, दमयंती निर्भयता से वन में आगे बढ़ने लगी। उसके शील के प्रभाव से सिंह आदि हिंसक प्राणी तो क्या राक्षस भी शांत हो गए। पति के साथ मिलाप न हो तब तक उन्होंने मुखवास, रंगीन वस्त्र, पुष्प, आभूषण आदि शरीर-शोभा और विगई
का त्याग किया। जंगल में भी मिट्टी से शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा बनाकर वह उनकी नित्य पुष्पों से पूजा करती थी और तपस्या के पारणे में वृक्ष से गिरे हुए फलों का आहार करती थी।
इस तरफ नल राजा एक राजा के वहाँ कुबड़ा बनकर रसोइया का काम करने लगे। कर्म पूरा होने पर पति-पत्नी का मिलाप हुआ। देव से प्रतिबोध पाकर दोनों ने दीक्षा ली और समाधि पाकर देवलोक में गए। वहाँ से च्युत होकर दमयन्ती सती कनकवती के नाम से वसुदेव की पत्नी बनकर मोक्ष में गई।
"हे महासती! संपत्ति या विपत्ति में आप कभी भी अधीर और व्याकुल नहीं हुईं, कभी भी डिगी नहीं
और आपने सदा निर्मल सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखा। हमें भी आप जैसी धीरता एवं श्रद्धा प्राप्त हो,
वैसी प्रभु से प्रार्थना करते हैं।" ६. ५९ नमयासुंदरी - श्रीमती नर्मदासुंदरी भारत वर्ष में स्त्री के लिए अपेक्षित उच्चतम गुण शील है। शील की रक्षा के लिए सतियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ता है, यह