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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय जो मिथिला नरेश नमिराज बनकर प्रत्येक-बुद्ध के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जंगल से मदनरेखाजी को एक विद्याधर नंदीश्वर द्वीप ले गया। थोड़े समय के बाद उन्होंने दीक्षा ली। कालक्रम से वे कर्म क्षय करके मोक्ष गईं।
"हे सती ! निडरतापूर्वक स्वजन की हितचिंता करने
का गुण हमें भी प्रदान करें ।” ५. ५८ दमयंती - महासती दमयंती प्रभु भक्ति के दृढ़ संस्कार, आपत्ति में अदीनता, सदाचार, दृढ़ सम्यक्त्व आदि गुणों से महासती दमयंती का हृदय सुशोभित था; तो पूर्वभव में अष्टापद के ऊपर २४ परमात्माओं के तिलक बनाकर बाँधे गए पुण्य से उनका भाल स्वयं प्रकाशित सूर्य जैसे देदीप्यमान तिलक से सुशोभित था।
वे भीमराज और पुष्पवती रानी की सुपुत्री और निषधपति नलराजा की रानी थीं। भाई के आग्रह से जुआ खेलते हुए नलराजा राज्य, वैभव आदि सब कुछ हार गए। दमयंती के साथ मात्र पहने हुए कपड़ो के साथ वन में जाने की नौबत आई। दमयंती को इसका ज़रा भी दुःख नहीं हुआ। आर्यपत्नी की तरह वह पति का अनुसरण करते हुए वन में गई। रात्रि का समय था, पशुओं की भयानक आवाज़ सुनाई दे रही थीं, वहीं दूर उन्हें तापस का आश्रम नज़र आया। नलराजा भयंकर पशुओं से बचने के लिए आश्रम का आश्रय लेने को तैयार हो गए। परन्तु दमयंती ने कहा कि, 'मेरी भौतिक संपत्ति चली गई उसकी कोई फिक्र नहीं है पर ऐसे तापसों के पास जाकर मेरी सम्यग्दर्शनरूप आध्यात्मिक संपत्ति पर ज़रा भी आँच आए, यह मुझे मंजूर नहीं है।' दोनों ही कंटकपथ पर भूखे-प्यासे आगे बढ़ रहे थे। कर्म योग से नल