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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
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में लोहे की बेड़ियाँ डाल कर, उनको एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया। तीन दिन बाद जब सेठ को इस बात का पता चला तब उन्हें बाहर निकालकर, एक सुपड़े में उड़द के बाकुले देकर उनकी बेड़ियाँ तुड़वाने के लिए लोहार को बुलाने गए। तब चंदनबालाजी के तीन उपवास हुए थे। उनको विचार आया कि किसी अतिथि को दान देकर भोजन करूँ। ऐसी भावना से वे दरवाजे के पास आईं; एक पैर दहलीज के अंदर और एक बाहर रख वे किसी अतिथि की राह देखने लगीं । उसी समय घोर अभिग्रहधारी वीर प्रभु पधारे। अभिग्रह पूरा हो वैसा था, परन्तु आँखों में आँसू नहीं थे। प्रभु ने चंदनबाला की तरफ़ देखा, चंदनबाला ने प्रभु को बाकुला वहोरने की विनती की... परन्तु प्रभु आगे बढ़ गए... कैसा दुर्भाग्य ! विचार करते ही चंदनबाला की आँखों से निरन्तर आँसू बहने लगे। जब पैरों में बेड़ियाँ थीं, तीन दिनों की भूख थी, तब भी चंदनबाला की आँखों में आँसू न थे; परन्तु प्रभु उनको लाभ दिए बिना ही चले गए इस घटना से उनकी आँखों से अश्रु की धारा बहने लगी । प्रभु ने पुनः उनकी तरफ़ देखा। अभिग्रह की सारी शर्ते पूरी हो गईं। तब प्रभु ने चंदनबाला के हाथ से छ: मासी तप का पारणा किया - कैसा सौभाग्य ! देवों ने वहीं साड़े बारह करोड़ सुवर्ण और पुष्पों की वृष्टी की और पंच दिव्य प्रगट हुए ।
अनुक्रम से जब प्रभु वीर को केवलज्ञान हुआ, तब वे उनकी प्रथम साध्वी बनीं और अपनी शिष्या मृगावतीजी से क्षमा मांगते हुए केवली बनकर मोक्ष में गईं ।
"हे चंदनबालाजी ! आप जैसी अदीनवृत्ति, भक्ति, सत्त्व और सरलता हमें भी प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थनापूर्वक आपको प्रणाम करते हैं ।”