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________________ २३० सूत्र संवेदना-५ लाभ हुआ है और अब निरंतर जीव मात्र पर दया भाव रखने से कैसा फल मिलेगा वह समझाकर कहा, 'पूर्वभव में तुमने एक सामान्य जीव के लिए कितना दुःख सहन किया था। अब ऐसे साधक महात्माओं की चरणरज से तुम क्यों दुःखी हो गए ?' प्रभु के वात्सल्य भरे शब्द सुनकर मेघकुमार मुनि संयम में स्थिर हुए। उसी समय उन्होंने जीवदया पालन करने में अति महत्त्वपूर्ण साधन रूप आँखों के सिवाय शरीर के शेष अंगो की दरकार न करने का संकल्प किया । सुंदर चारित्र पालकर वे विजयविमान में देव हुए और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह से मोक्ष में जाएँगे। "हे मेघकुमार मुनि! आपके जीवन प्रसंग से एक बात स्पष्ट समझ में आती है, 'जीवदया ही धर्म का सार है।' उसका क्या प्रभाव है, वह भी जाना। आपको वंदन करके, हमारे अंतःकरण में भी ये गुण प्रगट हों, ऐसी प्रभु से प्रार्थना करते हैं।” गाथा : एमाइ महासत्ता, दिंतु सुहं गुण-गणेहिं संजुत्ता । जेसिं नाम-ग्गहणे, पावप्पबंधा विलयं जंति ।।७।। संस्कृत छाया: एवम् आदयः महासत्त्वाः, ददतु सुखं गुण-गणैः संयुक्ताः येषां नाम-ग्रहणे, पाप-प्रबन्धाः विलयं यान्ति ।।७।। शब्दार्थ : अनेक गुणों से युक्त दूसरे भी महासत्त्वशाली पुरुष हैं जिनका नाम लेने मात्र से पाप का समूह नाश हो जाता है, वे हमें सुख दें।।७।।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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