SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२७ भरहेसर-बाहुबली सज्झाय सुशोभित करनेवाले प्रभवस्वामी अपने पट्टधर के बारे में चिंतित थे। वे जानते थे कि अपात्र को यह पद देने से बहुत बड़ा नुकसान होगा अतः जब श्रमण या श्रावक समुदाय में कोई योग्य नहीं दिखा, तब उन्होंने अपनी नज़र बाहर घुमाई। यज्ञ करते शय्यंभव ब्राह्मण उनको योग्य लगे। उनको प्रतिबोध करने के लिए उन्होंने अपने दो शिष्यों को यज्ञ स्थल पर जाकर यह बोलने को कहा, 'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते पुनः' । शय्यंभव यह सुनकर विचार में पड़ गए कि 'जैन मुनि कभी असत्य नहीं बोलते', फिर भी इस यज्ञ को अतात्त्विक बताकर मात्र कष्ट रूप कहा है तो मुझे अवश्य तत्त्व जानना चाहिए', फिर शस्त्र उठाकर याज्ञिक को वास्तविक तत्त्व बताने को कहा, मरण के भय से याज्ञिक ने यज्ञ के स्तंभ के नीचे स्थापित श्री शांतिनाथ प्रभु की प्रतिमा दिखाकर नितांत सत्य उजागर किया 'इस प्रतिमा के प्रभाव से यज्ञ के विघ्न टल जाते हैं, यज्ञ की महिमा से नहीं ।' यह सुनते ही सत्य के पक्षपाती श्री शय्यंभवजी तुरंत उद्यान में पहुँच गए, प्रभवस्वामी को विनयपूर्वक तत्त्व समझाने की प्रार्थना की। प्रभवस्वामी ने बताया कि साधुधर्म ही शुद्ध आत्म-तत्त्व को प्राप्त करने का उपाय है। तत्त्व प्राप्ति की अभिलाषा से उन्होंने उसी समय सगर्भा स्त्री का त्याग करके साधु धर्म का स्वीकार किया। चौदह पूर्व का अध्ययन किया। वर्षों के बाद जब उनका पुत्र मनक उनको ढूंढते-ढूंढते उनके पास आया तब पुत्र की ममता के लेश मात्र भी वश में हुए बिना, उसकी हितचिंता से उसे दीक्षा दी और उसके लिए श्री दशवैकालिक सूत्र की रचना की । “धन्य है इन आचार्य को जिन्होंने अपने पुत्र की बाह्य सुखचिंता न करते हुए हितचिंता की और स्व-पर सबका कल्याण किया। ऐसे मुनिवरों को वंदना करके,
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy