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सूत्र संवेदना-५ दिए बगैर ही अपना पेट भरने बैठ गया। अब मैं कहा थूकूँ ? तुम्हारे पात्र में?" बालमुनि ने नम्रता से कहा- “मैं भूल गया । अब क्या करूँ?" तब उस साधु ने क्रोधित होकर कूरगडुजी के पात्र में ही थूक दिया।
इस प्रसंग की कल्पना करें तो लगता है कि सचमुच ऐसे प्रसंग में दीनता या क्रोध आए बिना नहीं रह सकता; परन्तु कूरगडुजी का चित्त तो दृढ़ता से उपशम भाव में स्थिर था। ज़रा भी व्याकुल हुए बिना तपस्वी के प्रति अत्यंत प्रमोदित भाव से वे अपनी निन्दा करते हुए सोचने लगे, 'मैं कैसा भाग्यशाली हूँ कि ऐसे तपस्वी महात्मा ने मेरे पात्र के चावल को दूध और चीनी वाला कर दिया। ये महातपस्वी साधु ही सच्चे चारित्रवाले हैं। मैं तो चींटी के जैसे एक क्षण भी अन्न के बिना नहीं रह सकता।' इस प्रकार गुणों के प्रति गहरा अनुराग धारण करते हुए उस बालमुनि ने शुभ भाव रूपी अग्नि द्वारा बहुत समय से संचित कर्मों को घास के गट्ठर की तरह एक क्षण में जला दिया। चावल खाते-खाते, उसी क्षण मुनि को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
“कूरगडु मुनि को वंदन करते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे अंतःकरण में भी क्षमा, सहिष्णुता, गंभीरता
और उदारता आदि गुण प्रगट हो।” ५२. सिज्जंभव - श्री शय्यंभवसूरिजी तत्त्वप्राप्ति की लालसा से ही यह ब्राह्मण केवलज्ञान के ऊँचे स्थान तक पहुँच गए। हुआ ऐसा कि वीरप्रभु की तीसरी पाट परम्परा को 2. ऐसा भी सुना गया है कि वे संवत्सरी के दिन भी खाने बैठे तब लाई गई गोचरी बुजुर्ग तपस्वी
साधुओं को दिखाने गए। उन साधुओं ने उनकी खाने की आदत की निंदा करते हुए, उनके पात्र में थूक दिया। फिर भी उन्होंने अद्भुत क्षमा धारण कर स्वनिन्दा करते-करते सहिष्णुतापूर्वक इस अपमान को सहन कर खाते-खाते केवलज्ञान प्राप्त किया।