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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
२२५ कालक्रमानुसार श्री श्रेयांस ने प्रभु के पास दीक्षा ली और कर्म का, क्षय कर सदा के लिए सिद्धिपुरी में प्रभु के साथ सादि अनंत प्रीति जोड़ दी।
"हे महात्मा! उत्तम चित्त, वित्त और पात्र का सुयोग आपको मिला। पदार्थ और पात्र का योग तो हमें भी मिलता है, परन्तु आप जैसा चित्त हमें प्राप्त हो, यही
प्रभु से प्रार्थना करते हैं।" ५१. कूरगडू अ - और श्री कूरगडुमुनि
खुलापन, क्षमाशीलता और गुणानुरागिता - ये गुण श्री कूरगडुजी में सहज थे। धनदत्त सेठ के वे पुत्र थे । उन्होंने धर्मघोषसूरिजी के पास बचपन में ही दीक्षा ले ली थी। क्षुधावेदनीय की (भूख की) असह्य पीड़ा होने के कारण उनको हमेशा नवकारशी के समय ही घड़ा भरकर चावल लाकर खाना पड़ता था। जिससे उनका नाम कूरगडु पड़ा। (कूर = भात और गडु = घड़ा)। गच्छ के अन्य साधुओं की तरह वे तप नहीं कर सकते थे, पर वे हर योग का अपनी शक्ति को छुपाये बिना पालन करते थे। जहाँ शक्ति के उपरांत त्रुटि नज़र आती थी, वहाँ दीन भी नहीं बनते थे । अपने वीर्य की पुष्टि में सदा प्रयत्नशील रहते थे । इसलिए वे स्वभाव से ही क्षमावान थे और उन्होंने तपस्वियों की सेवा द्वारा वैयावच्च करने का अभिग्रह किया था।
एक बार संवत्सरी पर्व के दिन साधुओं की वैयावच्च करने के बाद वे घड़ा भरकर चावल ले आए, अभी खाने ही जा रहे थे कि एक कफ़ से पीड़ित मासक्षमण के तपस्वी साधु क्रोधित होकर उनके पास आए और कहने लगे, “बड़ा वैयावच्च का नियम करनेवाला आया, नियम तो ठीक तरह से पालता नहीं है। मुझे कफ़ निकालने का बर्तन