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सूत्र संवेदना - ५
एक साल से अधिक समय व्यतीत हो चूका था । साधु को क्या देना उचित है और क्या देना अनुचित है, इसका ज्ञान न होने के कारण लोग अत्यंत भावपूर्वक प्रभु को मूल्यवान रत्न, अपनी कन्याएँ, वस्त्रादि देते थे। परन्तु भिक्षाचर्या की क्रिया पूर्व में कभी न देखने के कारण, सुपात्र दान से अपरिचित लोगों को निर्दोष आहार से प्रभु को पारणा करवाने का विचार भी नहीं आया ।
ऐसे समय में एक दिन प्रभु के प्रपौत्र श्रेयांसकुमार को स्वप्न आया कि उसने अमृत से मेरु पर्वत को धोकर साफ किया, मानो स्वप्न की फलश्रुतिरूप प्रभु उनके आंगन में पधारे । प्रभु की सौम्य आकृति के दर्शन होते ही श्रेयांस को जातिस्मरण ज्ञान हुआ । अपना पूर्व भव याद आया । तब सुने हुए श्री वज्रनाभ परमात्मा के वचन याद आए कि ऋषभदेव प्रभु पहले तीर्थंकर बनेंगे, इसके साथ ही निर्दोष आहार की खोज में घर-घर भटकनेरूप साधु की भिक्षाचर्या भी याद आयी । उतने में ही कोई गन्ने के रस (इक्षुरस) से भरे १०८ घड़े श्री श्रेयांसकुमार को भेंट देने आया । श्रेयांसकुमार जैसा भक्तिपूर्ण निर्मल चित्त, शुद्ध गन्ने के रस जैसा उत्तम पदार्थ (वित्त) और प्रभु जैसा उत्तम पात्र ; इस प्रकार चित्त, वित्त और पात्र की उत्तमता का त्रिवेणी संगम हुआ ।
श्रेयांसकुमार ने प्रभु से उसी गन्ने के रस की विनंती की। निर्दोष आहार जानकर प्रभु ने उसका स्वीकार किया । तभी 'अहो दानम्, अहो दानम्' की ध्वनि से आकाश गूँज उठा । देवदुंदुभि का नाद हुआ और साढ़े बारह करोड़ सोने के सिक्कों की वृष्टि हुई। इस प्रकार इस अवसर्पिणी में सुपात्र दान का प्रारंभ हुआ। ऐसा शुभांरभ करने का सौभाग्य श्री श्रेयांसकुमार को प्राप्त हुआ था ।