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सूत्र संवेदना -
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४९. दड्ढप्पहारी अ और श्री दृढ़प्रहारी
किए गए पापों का तीव्र पश्चात्ताप, किए गए पाप से छूटने के लिए जो भी करना पड़े वह करने की तैयारी और प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच रहकर भी समता की सिद्धि; इन सभी गुणों ने दुराचारी और अत्याचारी को केवलज्ञान प्राप्त करवाया।
दृढ़प्रहारी, यज्ञदत्त ब्राह्मण के पुत्र थे, परन्तु कुसंग से बिगड़कर कुख्यात चोर - लूटेरे बन गये थे। अनेकों की हत्या करना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। एक बार लूट करते समय उन्होंने ब्राह्मण, स्त्री, स्त्री के गर्भ के बालक और गाय की हत्या की । जब स्त्री की हत्या की, तब गर्भ के भी दो टुकड़े हो गए। बेल के पत्ते की तरह तड़पता हुआ बालक बाहर गिर पड़ा। इस तरह तड़पते हुए गर्भ को देखकर निर्दयी, क्रूर पत्थर जैसे दृढ़प्रहारी के हृदय में भी करुणा उत्पन्न हुई । तब ब्राह्मण के दूसरे बच्चे भी 'हाय पिताजी! हाय पिताजी!' करते-करते करुण आक्रंद करने लगे। वर्षों से निर्लज्ज, निर्दय और नृशंस परिणाम से हत्या करनेवाले इस क्रूर दृढ़प्रहारी के रोंगटे भी इस खौफनाक दृश्य से खड़े हो गए । अपने दुष्कृत्य की भयानकता का ख्याल आने पर एक ज़बरदस्त परिवर्तन हुआ । उसके भाव कुछ मृदु होने लगे। अब इन बिचारे बच्चों का क्या होगा ? यह क्रूर कर्म अब मुझे कैसी दुर्गति में ले जायेगा ? पश्चात्ताप और पाप का भार लेकर वह वहाँ से भागा । मार्ग में उन्हें एक ध्यानस्थ मुनिवर मिले | मुनि के चरणों में वंदन कर दृढ़प्रहारी ने पाप का पश्चात्ताप किया और द्रवित हृदय से अपने उद्धार की प्रार्थना की। ध्यान पूरा कर, महात्मा ने कहा- “साधुधर्म के सुंदर पालन से इस पाप से छूट सकोगे।” दृढ़प्रहारी ने तुरंत ही महाव्रत के साथ दो महाप्रतिज्ञा स्वीकार की 'जिस दिन मुझे अपने पाप याद आए या कोई याद करवाए, उस दिन मैं आहार नहीं