________________
२१४
सूत्र संवेदना-५ है। यदि मैं भी उपवास कर लूँ, तो बच जाऊँगा । इस शंका से उन्होंने भी उपवास कर लिया । यह जानकर उदायन राजा सोचने लगे कि 'ये तो मेरे साधर्मिक हैं, इसलिए उनसे क्षमा माँगकर, सिर पर सोने की पट्टी लगाकर, मान सम्मान सहित उन्हें छोड़कर अपने राज्य वापस भेज दिया ।
एक रात को पौषध में तत्त्वचिंतन करते हुए उनको ऐसा मनोरथ हुआ कि, 'यदि प्रभु मेरे नगर में पधारें, तो मैं दीक्षा ले लूँगा ।' उत्कृष्ट भाव से भरे मनोरथ तुरंत सफल होते हैं । दूसरे दिन प्रभु वीर पधारे, उनका संकल्प भी पूर्ण हुआ। ‘राजेश्वरी तो नरकेश्वरी' ऐसा मानकर उन्होंने अपने पुत्र के बदले भानजे केशी को राज्य सौंप कर संयम स्वीकार किया।
विहार करते हुए जब उदायन राजर्षि वापस वीतभय नगरी में आए तब भानजे केशी राजा के मंत्री द्वारा राज्य खोने के डर से उनके ऊपर विष प्रयोग किया गया, परन्तु देव की सहायता से वे दो बार बच गए। तीसरी बार विष का असर हो गया; फिर भी उदायन राजर्षि शुभध्यान में स्थिर रहकर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गए ।
“सार्मिक का नाम सुनने पर शत्रु के प्रति मित्रभाव रखनेवाले हे राजर्षि! आप धन्य हैं । आपके चरणों में वंदना करके, आपकी तरह शत्रु को भी मित्र मानने का सद्भाव हमारे अंतःकरण में प्रगट हो, ऐसी प्रभु से प्रार्थना करते हैं ।" ४१. मणगो - श्री मनक मुनि सत्य तत्त्व की खोज करते हुए जब शय्यंभव ब्राह्मण ने जैन दीक्षा अंगीकार की तब उनकी गर्भवती पत्नी चिन्तित हो गईं, चिंता का