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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
२१३ तब आत्म हितेच्छुक 'माँ' ने स्पष्ट रूप से कहा - "तुम जो पढ़कर आए हो वह विद्या नहीं, दुर्गति में ले जानेवाली अविद्या है । तुम्हारे ऐसे ज्ञान से तुम्हारी माँ किस प्रकार खुश होगी ? यदि तुम दृष्टिवाद पढ़ो, तो मुझे खुशी होगी ।" विवेकी और हितेच्छु माँ की इस प्रेरणा से पुत्र ने मामा तोसलिपुत्र के पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए चारित्र ग्रहण किया और उनसे तथा श्री वज्रस्वामीजी से साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर अनेक शासन प्रभावक कार्य किए । मातापिता, वगैरह स्वजन परिवार को भी दीक्षा दी तथा दशपुर के राजा, पाटलिपुत्र के राजा आदि अनेकों को उन्होंने जैन बनाया ।
"हे श्रुतधर महर्षि ! आप की वंदना करके इच्छा करता हूँ कि आपके जैसी सरलता, समर्पण, श्रुतभक्ति आदि गुणों को आत्मसात् कर पाऊँ ।” ४०. उदायगो - श्री उदायनराजर्षि - 'मिच्छा मि दुक्कडं' किस भाव से करना चाहिए, इसका श्रेष्ठ उदाहरण है इस काल के अंत में हुए वीतभय नगरी के राजर्षि श्री उदायन राजा । उनकी रानी प्रभावती के पास श्री महावीर परमात्मा की एक देवकृत प्रतिमा थी । रानी ने जब दीक्षा ली तब वह प्रतिमा दासी को दे दी थी। ___ एक बार उज्जयिनी नगरी का राजा चंडप्रद्योत, दासी सहित उस जीवित स्वामी की प्रतिमा को उठा गया । उदायन राजा ने उसके साथ युद्ध करके उसे बंदी बनाया और उसके सिर पर 'दासीपति' लिखवाया। संवत्सरी के दिन उदायन राजा ने उपवास किया, तब चंडप्रद्योत राजा ने सोचा कि राजा उदायन ने उपवास का नाटक कर, छल से मेरे भोजन में विष मिलाकर, मेरे प्राण लेने का षड्यंत्र रचा