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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
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गाथा :
अज्जगिरी अज्जरक्खिअ, अज्जसुहत्थी, उदायगो, मणगो । कालयसूरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ।।५।। संस्कृतः
आर्यगिरिः आर्यरक्षितः, आर्यसुहस्ती, उदायनः मनकः । कालकसूरिः शाम्बः, प्रद्युम्नः मूलदेवः च ।।५।। गाथार्थ:
आर्यमहागिरि, आर्यरक्षित, आर्यसुहस्तिसूरि, उदायनराजर्षि, मनककुमार, कालिकाचार्य, शाम्बकुमार, प्रद्युम्नकुमार और मूलदेवराजा ।।५।। विशेषार्थ :
३७-३९ अज्जगिरी-अज्जसुहत्थी - श्री आर्यमहागिरि और श्री आर्यसुहस्तिसूरि
वीरप्रभु की आठवीं पाट-परम्परा को सुशोभित करनेवाले आर्य सुहस्तिजी संपूर्ण संघ के नायक होने के बावजूद विनय, नम्रता और प्रज्ञापनीयता की मूर्ति थे । वे और आर्यमहागिरि कामविजेता श्री स्थूलभद्रजी के शिष्य थे। आर्यमहागिरिजी जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी गच्छ में रहकर जिनकल्पी जैसा आचरण करते थे। कड़े संयम के आग्रही ऐसे उनको जब गोचरी की निर्दोषता के विषय में शंका हुई, तब उन्होंने आर्यसुहस्तिसूरिजी का कठिन अनुशासन किया।
इन आचार्य भगवंतों के काल में सम्राट अशोक के पौत्र संप्रतिराजा ने जैनधर्म स्वीकार कर दुनियाभर में उसकी महान प्रभावना की थी। आज भी अरब के देशों तक संप्रतिराजा द्वारा बनाए गए जिनमंदिर