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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय भाग निकला । इस तरह दौड़ते हुए जब वह थक गया, और उसकी गति मंद हो गई तब उसे पकड़े जाने का डर लगने लगा। सुषिमा को किसी भी हालत में उनके हवाले नहीं करना चाहता था । 'यदि सुषिमा मेरी नहीं हुई तो उसे किसी और की भी मैं बनने नहीं दूंगा' यह सोचकर तीव्र राग के आवेश में आकर तीक्ष्ण तलवार की धार से सुषिमा का सिर धड से अलग कर, धड को वही फेंक दिया । खून टपकते हुए मस्तक को चोटी से पकड़कर वह जंगल में खो गया। हाथ में सुषिमा का सिर लिए घोड़े पर चल रहा था । धीरे-धीरे मन में हलचल शुरू हो गई । जब क्रोध कुछ शांत हुआ तो उसे अपने घोर दुष्कृत्य का अनुभव हुआ । मन में घबराहट और बेचैनी होने लगी ।
अब उसके कर्म ने भी करवट बदली । सुंदर भवितव्यता के योग से उसने एक ध्यानस्थ मुनि को देखा। उनकी शांत और सौम्य मुद्रा से वह बहुत प्रभावित हुआ। उसके जीवन में महापरिवर्तन की क्षण आई। एक हाथ में खून से सनी हुई तलवार थी और दूसरे हाथ में सुषिमा का सिर। ऐसी स्थिति में उसने मुनि से शांति प्राप्त करने का मार्ग पूछा। मुनि ने उसकी योग्यता देखकर 'उपशम-विवेक-संवर' - ये तीन शब्द कहे और लब्धिधारी मुनि आकाशगमन कर गए। ___ इन शब्दों पर चिंतन शुरू करते ही चिलाती पुत्र को सच्चे सुख का मार्ग दिखा। 'उपशम' पर विचार करते करते क्रोधादि कषाय शांत हो गए। 'विवेक' से 'ना ही सुषिमा मेरी है और ना ही यह शरीर मेरा है' ऐसा ज्ञान हुआ और 'संवर' से इन्द्रियों का आवेग रुक गया। मोह का पर्दा हट गया; पश्चात्ताप की अग्नि प्रकट हुई। चिलातिपुत्र शुभध्यान में मग्न हो गए; खून के कारण उनके शरीर पर चींटियाँ चिपक गईं। ढाई दिन में उनका शरीर छलनी जैसा हो गया, परन्तु वे एक ही विचार में मग्न थे, 'मैंने सबको दुःख दिया है - यह मेरे ही कर्म