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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
२०७ ज्ञान के प्रभाव से युवावस्था में भी इलाचीपुत्र में विषय-राग के बदले विषय-विराग की तरफ़ ज़्यादा झुकाव था। मोहाधीन पिता इस वैराग्य को स्वीकार न कर सके, इसलिए संसार की रुचि पैदा करवाने के लिए उनके पिता ने पुत्र को बुरे मित्रों की संगत करवाई। कुमित्रों के साथ घूमते-घूमते निमित्तों के अधीन होकर इलाचीपुत्र एक नट कन्या के मोह में फँस गए। पिता ने बहुत समझाया, परन्तु पूर्वभव के गाढ स्नेह के संस्कार के कारण इलाचीपुत्र को उस कन्या के सिवाय अन्य कोई सुन्दर स्त्री भी आकर्षित नहीं कर सकी । पुत्र मोह के वश उसके पिता ने नट से उसकी कन्या की माँग की। नट ने शर्त रखी कि यदि इलाची नटकला सीखें और खेल/नाच दिखाकर राजा से ईनाम प्राप्त करें, तो ही वह अपनी कन्या से उसकी शादी करवाएगा।
कर्म का कैसा उदय कि दृढ़ वैरागी इलाचीपुत्र ने कामराग से वशीभूत होकर रसपूर्वक नृत्यकला भी सीखी और राजा से इनाम पाने के लिए रस्सी पर नृत्य भी करने लगे। परन्तु कर्म भी अपना अजीब खेल खेलता है। राजा के मन में भी वही कन्या बस गई और इसी कारण बार-बार नृत्य दिखाने के बावजूद वे इलाची को इनाम नहीं दे रहे थे। इलाची राजा की बुरी नियत को पहचान गया था। इतने में उसकी नज़र बगल के घर में गोचरी के लिए पधारे एक निर्विकारी मुनिराज पर पड़ी।
मुनि को, लावण्य संपन्न, कुलवान, सुनहरी कायावाली, पद्मिनी, साक्षात इंद्राणी जैसी एक सुंदर स्त्री भिक्षा वोहरा रही थी, परन्तु रागद्वेष की ग्रन्थि को तोड़नेवाले निग्रंथ, निर्विकारी मुनि की नज़र तो नीचे ही ढली हुई थी । साधु के पंथ की अनुमोदना करते हुए और अपनी परिस्थिति को धिक्कारते हुए वे सोचने लगे कि 'कहाँ ये निर्विकारी अचल मुनि जो अपने सामने अद्भुत रूपवान कन्या को देखकर