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सूत्र संवेदना-५ उनके जैसा क्षमाशील मन मिले, वैसी प्रार्थना
करते हैं।' ३२. अवन्तिसुकुमालो - श्री अवन्तिसुकुमाल 'चट चट चूटे दांते चामड़ी, गटगट खाये लोही मांस बटबट-चर्मतणां बटकां भरे, त्रट त्रट तोड़े नाडी नस...'
- अवंतिसुकुमाल की ढाल एक मादा सियार अपने बच्चों के साथ आधी रात को जंगल में कायोत्सर्ग में लीन नवदीक्षित मुनि को देखकर, पूर्व भव के वैर को याद कर, उनके खून की प्यासी हो गई । रौद्र रूप धारण कर मुनि के शरीर को फाड़कर खाने लगी। पहले उसने मुनि का पैर काटा । शरीर के प्रति निःस्पृही महात्मा मन से बिल्कुल व्यथित भी नहीं हुए
और ना ही उन्होंने अपना पैर उठाकर बचने का कोई प्रयत्न किया । मात्र 'मैंने समताभाव में रहने की प्रतिज्ञा ली है' यह सोचकर समता की मस्ती में झूमने लगे । रात्रि का एक प्रहर जब खत्म हुआ तब तक एक पैर खा लिया, दूसरे प्रहर में दूसरे पैर को नोचना शुरु किया, तीसरे प्रहर में पेट फाड़ा... फिर भी मुनि निश्चल रहे। विचार किये कि, 'यह काया नश्वर है - मैं अविनाशी हूँ। जो हो रहा है वह काया को हो रहा है, मुझे कुछ नहीं हो रहा....' - ये विचार थे भद्र सेठ-भद्रा सेठानी की संतान, ३२ पत्नियों के स्वामी श्री अवन्तिसुकुमाल के, जिनको आर्य सुहस्तिसूरि के पास 'नलिनीगुल्म' अध्ययन सुनते हुए जाति-स्मरण ज्ञान हुआ था। स्वयं नलिनीगुल्म विमान से यहाँ मनुष्य हुए हैं ऐसा ज्ञान होते ही उन्हें संपूर्ण वैभव तुच्छ लगा। उसकी ममता छोड़कर रात को ही दीक्षा ली। श्मशान में कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान में खड़े हो गए। एक ही रात में