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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय श्रीकृष्ण को बताई, तब हरिणगमैषी देव की आराधना करने से एक महर्द्धिक देव उनके गर्भ में आए। देवकी के ये आठवें पुत्र ही श्री गजसुकुमाल हुए।
बाल्यकाल से ही वैरागी होने के बावजूद माता-पिता ने उन्हें मोहपाश में बाँधने के लिए शादी करवाई । उससे विचलित न होते हुए उन्होंने तुरंत ही श्री नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षा ली और उनकी अनुमति लेकर कर्म हनन करने के लिए श्मशान में काउस्सग्ग करके ध्यान मग्न हो गए।
अपनी पुत्री के हरे-भरे संसार को बिगाड़नेवाले गजसुकुमाल मुनि के ऊपर उनके ससुर सोमिल अत्यंत कोपित हुए । गजसुकुमार मुनि को सज़ा देने के लिए उसने ध्यानमग्न मुनि के सिर पर मिट्टी की (पाघ) अंगीठी बाँधी और पास की चिता से धधकते अंगारे लेकर उसमें भर दिए। एक ओर मुनि का सिर उस ज्वाला से भड़कने लगा, तो दूसरी ओर कर्मरूपी आग को बुझाने के लिए मुनि ने ध्यानरूपी पानी की धारा तेज़ कर दी, 'यह ससुर ही मेरा सच्चा स्नेही है, जो मुझे मोक्ष की पगड़ी पहनाने के लिए कितना आतुर है।' शरीर और आत्मा के भेदज्ञान का अनुभव करते हुए महामुनि को शरीर एक पराई वस्तु भासित हुई और पराई वस्तु के जलने में आत्मा का कुछ नुकसान नहीं दिखा। इस प्रकार समताभाव में लीन महात्मा ने शरीर की ममता का सर्वथा त्याग कर दिया। द्रव्य आग ने उनके शरीर को जलाकर भस्म कर दिया और भाव आग ने उनके कर्म रूप शरीर को जलाकर, उन्हें अशरीरी पद प्रदान कर दिया ।
'मरणांत उपसर्ग में भी शुभध्यान की धारा को अखंडित रखनेवाले मुनि के चरणों में मस्तक झुकाकर