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________________ १९८ सूत्र संवेदना-५ ___ मनुष्य का मन ही कर्मबंध का कारण है और मनुष्य का मन ही मोक्ष का कारण है । साँतवीं नरक का नाम सुनकर 'मेरे सुनने में कोई भूल हुई होगी' ऐसा सोचकर महाराज श्रेणिक ने पुनः वही प्रश्न प्रभु को क्षणभर बाद दोहराया । इस बार प्रभु का उत्तर था, 'यदि इस समय उनकी मृत्यु हो तो वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होंगे।' प्रभु के यह जवाब देते ही देव-दुंदुभि बजने लगी। महात्मा तब तक तो केवलज्ञानी भी बन गए। घटना कुछ ऐसी घटी कि श्रेणिक महाराज ने जब पहली बार प्रश्न पूछा था तब श्री प्रसन्नचंद्रमुनि बाह्य से काउस्सग्ग ध्यान में लीन दिखें थे, परन्तु उनका मन रौद्रध्यान से घिरा था। दुर्मुख नामक दूत के वचन सुनकर बाल राजकुंवर की चिंता से मुनि ने मन ही मन गद्दार मंत्रियों के साथ भीषण युद्ध शुरू कर दिया था। तब मंत्रियों को मारने तक के परिणाम से सातवीं नरक गमन के योग्य कर्मबंध हो रहा था। प्रभु ने उनकी यथा परिणाम गति बताई। मन में ही भीषण युद्ध की कल्पना करते हुए मुनि के सभी शस्त्र खत्म हो गए। इन क्षत्रिय ने तो अंतिम श्वास तक शत्रु का सामना करने की ठान ली थी । अतः सिर के लोहे के टोप से शत्रु के टुकडे-टुकडे कर दूँगा यह सोचकर जैसे ही उन्होंने सिर पर हाथ फिराया वैसे ही लोच किए हुए सिर का स्पर्श हुआ। तुरंत ही वे जागृत हो गए, सावधान हो गए । 'मैं संयमी हूँ, साधु हूँ' यह ख्याल आते ही पश्चात्ताप की आग भड़कने लगी । रौद्रध्यान अब धर्मध्यान में परिवर्तित हो गया। तब सर्वाथ सिद्ध विमान के अनुरूप कर्मबंध था । क्रमशः विशुद्ध, विशुद्धतर ध्यान प्रगट हुआ। अंत में विशुद्धतम शुक्लध्यान ने मुनि को केवलज्ञान की भेंट दी । “क्षण में मन को पलटकर शुभध्यान द्वारा कर्म का नाश करनेवाले इस राजर्षि को प्रणाम करके प्रार्थना
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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