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________________ सूत्र संवेदना-५ अनादिकालीन कषायों के कुसंस्कार, मन की मलिनता, असहनशीलता, अनुदारता आदि दोषों के कारण साधर्मिक के साथ उचित व्यवहार न हुआ हो, उच्च स्वर में या कर्कश वचन बोले हो, मन से उनके विषय में अनुचित विचार किया हो या उनकी उपेक्षा हुई हो तो यह सार्मिक के प्रति अपराध है । पूरे दिन में साधर्मिक के प्रति ऐसा कोई भी अपराध हुआ हो तो उसे याद करके इन शब्दों द्वारा उनसे क्षमा माँगनी चाहिए । कुल गणे अ- कुल एवं गण के प्रति एक आचार्य के शिष्यों के समुदाय को 'कुल' और परस्पर अपेक्षा रखनेवाले ऐसे तीन कुलों के समुदाय को 'गण' कहते हैं । कुल एवं गण में रहनेवाले सभी साधक मोक्ष को पाने के लिए श्रम करते हैं और अलग-अलग गुणों से संपन्न होते हैं; परन्तु सभी साधकों के भिन्नभिन्न संस्कार, अलग-अलग कर्म और वैयावच्चादि कार्य करने की भिन्न-भिन्न पद्धतियों के कारण एक-दूसरे के भाव या कार्य शैली नहीं समझने के कारण उनमें कभी-कभी परस्पर मनदुःख, अयोग्य व्यवहार या कषाय होने की संभावना रहती है। इस प्रकार कुल या गण के एक सदस्य के प्रति भी अयोग्य व्यवहार कर्मबंध का कारण बनता है। गुणवान आत्मा पर द्वेष गुणप्राप्ति में महाविघ्नकारक है । इसलिए ऐसे कषाय की क्षमा याचना जरूर करनी चाहिए । जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेण खामेमि-मैंने जो कषाय किये हों, उन सभी की मैं मन-वचन और काया से क्षमा माँगता हूँ । __ आचार्यादि से लेकर कुल और गण के सदस्यों के प्रति किसी भी कषाय के अधीन होकर वाणी से किसी के भी भाव को ठेस पहुंचाई हो, काया से कोई आशातना या गलत व्यवहार किया हो या मन से किसी
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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