________________
भरहेसर-बाहुबली सज्झाय २२-२३. साल-महासाल - श्री शाल और श्री महाशाल
श्री शाल राजा थे, तो श्री महाशाल युवराज थे। दोनों के बीच अत्यंत प्रीति थी। प्रभु वीर की वाणी से वैरागी बनकर, उन्होंने अपने भांजे गांगली को राज्य सौंपकर दीक्षा ली। एक बार श्री गौतमस्वामी के साथ गांगली को प्रतिबोधित करने के लिए वे पृष्ठचंपा में आए। गांगली ने भी माता-पिता के साथ दीक्षा ली। रास्ते में शुभ भावना से भावित होते हुए केवलज्ञान प्राप्त करके सब मोक्ष में गए।
“शुभभाव द्वारा शीघ्र सिद्धि को पानेवाले इन महापुरुषों के चरणों में प्रणाम करके, उनके जैसे
शुभभावों को पाने का प्रयत्न करें।" २४. सालिभद्दो अ - और श्री शालिभद्र पूर्व भव में ग्वाले के पुत्र संगम ने पर्व के दिन रोकर बहुत मुश्किल से प्राप्त हुई खीर अत्यंत भावपूर्वक मुनि को वहोरा दी। जिसके प्रभाव से वे राजगृही नगरी में गोभद्रसेठ और भद्रासेठानी के अतुल संपत्तिवान पुत्र श्री शालिभद्र बने।
शालिभद्र का यह अति अल्प दान प्रख्यात है और उनको प्राप्त हुए मेरु जैसे भोग भी प्रसिद्ध हैं; पर इन दोनों के पीछे उनके कैसे भाव थे इसे जानना हमारे लिए अति आवश्यक है । सुपात्रदान की क्रिया से जुड़ा हुआ था अनुमोदना का भाव तो उसके फलरूप मिले सुखसमृद्धि से जुड़ा हुआ था अनासक्त भाव।
सुपात्रदान की एक छोटी-सी क्रिया भी महापुण्य का उपार्जन करने में समर्थ बन सकी, क्योंकि उस क्रिया से अनुपम विशुद्ध कोटि की अनुमोदना एवं फल निरपेक्षता का भाव जुड़ा हुआ था। सुपात्रदान तो केवल अपार भौतिक सुख देने में ही समर्थ है, परन्तु किसी भी शुभ