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________________ १९४ सूत्र संवेदना-५ क्रिया से जुड़ी हुई निर्दभ अनुमोदना से ऐसा शुभ अनुबंध होता है, जो परंपरा से पूर्ण सुख (मोक्ष सुख) देकर ही विरमित होता है। ऐसी प्रमोददायिनी अनुमोदना के कारण ही तो श्री शालीभद्रजी एक छोटे-से निमित्त को पाकर अपनी प्रचुर ऋद्धि का त्याग कर आध्यात्मिक सुख के लिए अकल्पनीय यत्न कर सकें । कर्म में भी शूर, धर्म में भी शूर शालिभद्र शक्कर पर बैठी मक्खी की तरह सुख को भोग भी सके और समय आने पर उसका त्याग भी कर सके। उग्र तप और निरतिचार संयम का पालन करके श्री शालिभद्रजी सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए हैं। वहाँ से च्युत होकर वे महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष में जाएँगे। "हे महाविरक्त महात्मा ! आप जैसी भौतिक सुखसमृद्धि की इच्छा कर मैं अनेक बार संसार समुद्र में डूबा हूँ। आज आपको अंतःकरण से प्रणाम करके आपकी आध्यात्मिक समृद्धि की इच्छा करता हूँ ।” २५. भद्दो - श्री भद्रबाहुस्वामीजी विनय और अहंकार दो विरोधी तत्व हैं। एक आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पर चढ़ाता है, तो दूसरा पतन की गहरी खाई में पटक देता है। अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी और वराहमिहिरः दो सगे भाई थे। मूल में ब्राह्मण होने के बावजूद दोनों ने वैराग्य से श्री यशोभद्रसूरिजी के पास जैन दीक्षा ली, साथ ही अध्ययन किया... परन्तु विनयगुण से श्री भद्रबाहु-स्वामीजी को वह फलित हुआ। स्व-पर का कल्याण करके वे एकावतारी होकर मोक्ष में जाएँगे। वराहमिहिर को विद्या का गर्व हुआ, परिणाम स्वरूप वे धर्म द्वेषी बनकर व्यंतर के रूप में उत्पन्न हुए।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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