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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
१८७ आमंत्रण दिया। योग्य और अनुकूल आहारादि से कंडरीकजी के शरीर से रोग तो चला गया, परन्तु संयम में शिथिलता आ गई। योगमार्ग से मन उठ गया और भोग की भूख प्रज्वलित हो उठी। पुंडरीकजी ने उनको बहुत समझाया; परन्तु कंडरीक मुनि ने उनकी एक न सुनी। विरक्त पुंडरीकजी ने उनको राजपाट सौंप दिया। अपना राजलिंग उनको देकर और उनका संयमलिंग स्वयं ग्रहण करके संयमी बन गए।
दोनों भाई अलग-अलग दिशा में चल पडे। कंडरीक ने आहार की लोलुपता से अति मात्रा में भोजन किया। दूसरे दिन अजीर्ण आदि के कारण कंडरीकजी आहार की आसक्ति और रौद्रध्यान में मृत्यु प्राप्तकर भयंकर दुःखों के स्थानभूत सातवीं नरक में पहुँच गए और श्री पुंडरीकजी संयम प्राप्ति के शुभ भावरूप शुभध्यान में मरकर भौतिक सुख की पराकाष्ठावाले अनुत्तर विमान में अवतरित हुए।
श्री गौतमस्वामीजी ने अष्टापद पर्वत पर वज्रस्वामीजी के जीव (जो पूर्व भव में एक तिर्यंजूंभक देव था) उनको यह पुंडरीक-कंडरीक अध्ययन सुनाया। इससे बोध पाकर वही जीव वज्रस्वामी बने और शासन के महान प्रभावक और आराधक बने।
यह दृष्टांत अत्यंत बोधदायक है। अनुकूलता का राग जीव को कहाँ से कहाँ ले जाता है और संयमादि सद्गुणों का राग जीव को उच्च शिखर तक ले जाता है, यह सोचने के लिए इन दोनों भाइयों की कथा अत्यंत प्रेरक है।
“हे पुंडरीकजी ! आपके अनासक्त भाव को पूरे भाव से वंदन करता हूँ। प्रातः काल प्रार्थना करता हूँ कि, आप जैसा संवेग, आप जैसा वैराग्य, आप जैसी उदारता और आप जैसी सरलता मुझे भी मिले ।"