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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
१८५ इस पुण्यशाली का कैसा सौभाग्य कि जब वह प्रेम या स्नेह के ज़रा भी योग्य नहीं रहे, तब भी उनकी पत्नी ने उनका साथ नहीं छोड़ा । तीन-तीन बार अपार समृद्धियाँ उन्हें सामने से मिलीं । इसलिए व्यापारी हर नवीन वर्ष पर उनके जैसे सौभाग्य की प्रार्थना करते हैं, उनका सच्चा सौभाग्य तो यह था कि जब खुशी के दिन आए, तब संसार की असारता समझ में आई और वे उसका त्याग कर कठोर संयम चर्या पालकर आत्मकल्याण साध सके।
“ऐसे महापुरुष के चरणों में प्रणाम करके उनके जैसी त्यागवृत्ति हमारे अंतःकरण में भी उद्भूत हो, यही प्रभु-प्रार्थना है ।” १५. सुकोसल - श्री सुकोशल मुनि
श्री रामचंद्रजी के पूर्वज कीर्तिधरराजा ने अपने बाल्यावस्था के पुत्र सुकोशल को राजा बनाकर दीक्षा ली थी। कालक्रमानुसार पिता मुनि उस गाँव में पधारे । पुत्र को भी दीक्षा न दे दें, इस भाव से माता ने उन्हें गाँव से बाहर निकाल दिया। यह बात जानने पर सुकोशलजी अत्यंत नाराज़ हुए। पूर्व में पति के प्रेम में पागल बनी पत्नी का माता बनकर पुत्र के प्रेम में उसी पति के साथ अनर्थ करना ! संसार की ऐसी विचित्रता का विचार करते हुए सुकोशलजी भी वैरागी बन गए और पिता मुनि के पास दीक्षा ली। माता रानी सहदेवी, पति और पुत्र के वियोग से आकुल-व्याकुल हो गई। आर्तध्यान में मरकर वह शेरनी बनी ।
एकबार संयोगवश दोनों मुनि उस शेरनी के जंगल में पहुंच गए। पूर्व के वैर के कुसंस्कार के कारण उनको देखते ही शेरनी ने रौद्र स्वरूप धारण किया। उपसर्ग होने के अंदेसे से ही पिता मुनि ने पुत्र