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सूत्र संवेदना-५ यह देखकर वेश्या ने कहाँ, ‘इन पैसों को भोगने के लिए यहीं रह जाओ, नहीं तो पैसे ले जाओ।' चारित्र मोहनीय के प्रबल उदय से इन शब्दों को सुनकर मुनि ने घुटने टेक दिए। एक कषाय से परास्त मुनि को दूसरे कषाय ने भी अपनी चुंगल में फँसा लिया। वेश्या के कहने से मुनि साधुता छोड़कर संसारी बन गए। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से मुनि की प्रवृत्ति बदल गई, परन्तु दर्शन मोहनीय का क्षयोपशम विशुद्ध था, जिससे वृत्ति नहीं बदली। वेश्या के घर रहने के बावजूद मुनि का वैराग्य प्रबल ही रहा। मुनि ने अभिग्रह किया कि, 'कर्मोदय से भले मैं संसार सागर में डूब रहाँ हूँ, परन्तु जब तक रोज १० लोगों को संसार से पार करवाकर प्रभु के पास दीक्षा लेने न भेजूं, तब तक भोजन नहीं करूँगा ।'
हृदय में तीव्र वैराग्य की आग सतत भड़कने के कारण, एक राग की ही आज्ञा जहाँ शिरोधार्य हो, ऐसे वातावरण में भी प्रतिदिन आनेवाले १० रागी और कामी व्यक्तियों को वैरागी बनाकर, नंदिषेण उन्हें प्रभु वीर के पास उन्हीं की आज्ञा शिरोधार्य करने भेज देते थे। रागी को वैरागी और कामार्थी को दीक्षार्थी बनाने का यह सिलसिला बारह वर्ष तक लगातार चलता रहा। तब एक बार दसवाँ व्यक्ति अनेक प्रयत्न के बावजूद प्रतिबोधित नहीं हो रहा था, अंत में गणिका ने मज़ाक में कहा ‘दसवें आप'... वेश्या के शब्द सुनकर नंदिषेण जागृत हो गए । वेश्या के ताने से गिरे हुए पुनः वेश्या के ताने से ही उठ गये। पुनः प्रभु के पास दीक्षा ली। साधना करके मोहराज को परास्त कर मुनिवर ने मोक्ष को प्राप्त किया।
“परम वैरागी इन मुनि के चरणों में मस्तक झुकाकर उनके जैसे प्रबल वैराग्य और विरतिधर्म की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं ।”