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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
१८१ ये शब्द थे स्वयं प्रभु वीर के, जिसे सुन रहे थे, श्रेणिक महाराजा के प्रखर वैरागी पुत्र श्री नंदिषेण। स्वयं सर्वज्ञ प्रभु की ऐसी वाणी और वैसी ही आकाशवाणी सुनने के बावजूद उनकी दीक्षा लेने की भावना ज़रा भी मंद नहीं हुई। कर्मराज और मोहराज को हराने के लिए वे कटिबद्ध थे। भगवान ने भी भाविभाव जानकर उनको दीक्षा दी। मंद वैराग्यवाला व्यक्ति तो कोई सामान्य ज्योतिष की वाणी सुनकर भी मन से विचलित हो जाता है, परन्तु श्री नंदिषेण का सत्त्व एक निडर योद्धा जैसा था।
कर्म के उदय से उठती भोगेच्छाओं पर विजय पाने के लिए उन्होंने उग्रविहार, छट्ठ के पारणे आयंबिल की उत्कृष्ट तपस्या, शास्त्राभ्यास आदि अनेक शुभ योग किए; परन्तु मोहनीय कर्म का मजबूत पाश नहीं टूटा। चित्त में एक ओर चारित्र मोहनीयकर्म का उदय विकार उत्पन्न कर रहा था, तो दूसरी ओर दर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम कह रहा था कि 'प्राण जाए परन्तु प्रतिज्ञा न जाए'। इस सात्त्विक विचार से मुनि ने अनेक बार, अनेक तरीको से मरने का प्रयास किया, परन्तु देव ने एक भी उपाय सफल नहीं होने दिया।
गोचरी के लिए घूमते-घूमते एक दिन भवितव्यता के योग से मुनि ने एक वेश्या के घर में अनजाने में प्रवेश कर 'धर्मलाभ' दिया। वहाँ से प्रतिसाद आया 'यहाँ धर्मलाभ का काम नहीं है, यहाँ तो अर्थलाभ चाहिए...'
ये शब्द मुनिराज को काँटे की तरह चुभने लगे । काम के सामने लड़नेवाले मुनिराज को मान कषाय ने पराजित कर दिया। मान के वश होकर वेश्या को मुँह तोड़ जवाब देने के लिए एक ही क्षण में लब्धिसम्पन्न मुनि ने एक तिनखें को खींचकर साढ़े बारह करोड़ सोने के मोहरों की वृष्टि कर दी।