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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
१७९ चौदह पूर्व और अर्थ से दस पूर्व के ज्ञान को धारण करनेवाले इस काल के ये अंतिम महात्मा थे ।
“धन्य है इन महात्मा को जिन्होंने काम के घर में प्रवेश कर काम को हराया। उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए प्रार्थना करें कि हमें भी काम के विकारों से मुक्त होने का बल दें।" ११. वयररिसी - श्री वज्रस्वामी :
प्रभुवीर की तेरहवीं पाट को दीपानेवाले वज्रस्वामी अप्रतिम विवेक, तीव्र वैराग्य, गंभीरता, दीर्घदृष्टि, शासन के प्रति अविचल राग आदि अनेक गुणसंपत्ति के स्वामी थे ।
पुण्य के प्रबल उदय से उनको जन्म से ही अद्भुत रूप मिला था। उनके रूप को देखकर पड़ोसी बहन ने कहा, 'इसके पिता धनगिरि ने दीक्षा न ली होती तो इसका कितना सुंदर जन्म महोत्सव किया जाता ।'
इन शब्दों को सुनते ही जाति स्मरण ज्ञान होने पर बालक के पूर्व भव के संस्कार जागृत हुए। दीक्षा लेने का निश्चय किया और सतत रोकर माता सुनंदा के मोह को तुडवाया । अनेक गुणों में प्रमुख, उनकी विवेकवार्ता का यह प्रारम्भ था। तब तो वे झूले में झुलते बालक थे; पर तब भी बुद्धि अप्रतिम थी। माता ने तो उन्हें पिता मुनि को समर्पित कर दिया। वज्रकुमार अब साध्वी के उपाश्रय में स्वाध्याय के गुंजन के बीच झूलने लगे। देखते ही देखते ग्यारह अंग कंठस्थ हो गए। फिर भी चंचल वृत्ति नहीं थी, मुझे आता है, ऐसा प्रदर्शन करने की भावना नहीं थी । मान का ज्वर नहीं था। बालक होने पर भी अत्यंत गंभीरतापूर्वक उन्होंने अपनी बुद्धि का उपयोग आत्महित के लिए ही किया ।