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सूत्र संवेदना-५ है । गुणवान आत्मा की निंदा करके मैंने अपनी
योग्यता गवाँ दी है। इस प्रकार आचार्य भगवंत को ध्यान में रखकर, सिर झुकाकर अपने अयोग्य विचार, वाणी और व्यवहार की हृदयपूर्वक निंदा करते हुए साधक आर्द्र स्वर में उनसे अपने अपराध की क्षमा माँगता है । उवज्झाए - उपाध्याय के विषय में ।
उपाध्याय भगवंत संघ की माता के समान हैं । माँ जैसे आहार, वस्त्रादि से बालक का पालन करती है, वैसे ही उपाध्याय भगवंत समुदाय के प्रत्येक साधु को आगमरूप अमृत का पान करवाकर, उनकी आत्मा का लालनपालन और पोषण करते हैं । आगम का अध्ययन करवाते हुए करुणाई हृदयवाले उपाध्याय भगवंत को, अविनयी, अज्ञानी या प्रमादी शिष्य के दोषों को दूर करने के लिए कभी आँख लाल करके, कठोर वाणी से शिष्य को डाँटना पड़ता है । तब स्वहित को समझनेवाला शिष्य सोचता है - "सचमुच मैं पुण्यवान हूँ, जो मुझे आत्महित के लिए अनुशासन मिला, अपने आप को सुधारने का अवसर मिला।" इस प्रकार के विचार से उसे आनंद मिलता है, परन्तु अपने हित को नहीं समझते हुए उपाध्यायजी महाराज की शुभेच्छा और उपकारों की उपेक्षा करने वाले शिष्य को उन की इस प्रवृत्ति के प्रति अरुचि या द्वेष होता है। उपाध्याय के प्रति हुआ दुर्भाव ही उनके प्रति महा-अपराध है।
यह पद बोलते हुए कषायाधीन होकर शिष्य द्वारा उपाध्याय भगवंत का किसी भी प्रकार का अविनय या अपराध हुआ हो तो उसे याद करके सोचना चाहिए कि - "उपकारी के प्रति मेरा ऐसा भाव मुझे कहाँ ले जायेगा और कैसे कर्मों का बंध करवाएगा ? सचमुच मैंने गलत किया है।" इस प्रकार विचार कर, स्मृति में बिराजमान