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________________ १७४ सूत्र संवेदना-५ ७. अइमुत्तो - श्री अइमुत्ता मुनि 'पणगदग-मट्टी... दग-मट्टी...' शब्द सामान्य हैं। रोज बार-बार बोले जाते हैं, परन्तु इन्हीं शब्दों में जब बालमुनि अइमुत्ता के प्रायश्चित्त का भाव मिश्रित हुआ, तब इनमें केवलज्ञान प्रगट करने की शक्ति आ गई । यह बात है पेढालपुर (पोल्लासपुर) के राजपुत्र अतिमुक्तक की । बाल्यावस्था में पापभीरूता से अतिमुक्त ने दीक्षा ली थी, परन्तु उनकी आध्यात्मिक परिपक्वता अत्यंत आश्चर्यकारी थी। एक बार एक स्त्री ने उनसे पूछा, 'इतनी छोटी उम्र में दीक्षा क्यों ली ?' तब विचक्षण प्रतिभावाले उन्होंने कहा, 'मैं जो जानता हूँ वह नहीं जानता'। जब उसे समझ में नहीं आया तब उन्होंने स्पष्ट किया 'मरण आयेगा यह मैं जानता हूँ - कब आयेगा यह नहीं जानता।' ऐसी गूढ़ बातों से प्रतिबोधित करनेवाले बालमुनि का हृदय तो बालक का ही था। एक बार वर्षाऋतु में जल से भरे गड्ढ़े में तालाब की कल्पना करके बालमुनि पात्र की नाव चलाने लगे। बुजुर्ग साधुओं ने उनको समझाया ‘ऐसा करने से पाप लगता है। आप से पानी के असंख्य जीवों की विराधना हो गई ।' यह सुनकर उनको बहुत पश्चात्ताप हुआ। 'मुझ से पाप हो गया' इस विचार से हृदय द्रवित हो उठा। वीर प्रभु से प्रायश्चित्त माँगा। प्रभु ने इरियावहि प्रतिक्रमण करने को कहा। तीव्र पश्चात्तापपूर्वक इस सूत्र का उच्चारण करते हुए ‘पणग-दगमट्टी...' शब्दों पर वे अटक गए। अपने जैसे असंख्य जीवों की विराधना का पाप उनको खटकने लगा, प्रायश्चित्त की आग प्रज्वलित हो गई और उसमें घनघाती कर्म जलकर राख हो गए और बचपन में ही इन महात्मा को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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