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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
१७३ आचार्यने जंघाबल क्षीण होने के कारण वहीं स्थिरवास किया । तब पुष्पचूला साध्वीजी उनके लिए गोचरी पानी लाकर उनकी वैयावच्च करती थी। उसके बीच साध्वीजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, परन्तु उन्होंने वैयावच्च करना नहीं छोड़ा। एक दिन बरसात में गोचरी लाने के कारण साध्वीजी को उपालंभ देते हुए उनसे मिले गए जवाब से अर्णिकापुत्र आचार्य को ख्याल आया कि साध्वीजी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। ख्याल आते ही अर्णिकापुत्र ने उनसे प्रश्न किया, 'मैं कब और कहाँ केवलज्ञान प्राप्त करूँगा ?' जवाब मिला, 'आपको गंगातट पार उतरते हुए केवलज्ञान होगा ।'
पैरों में शक्ति न होने के बावजूद कर्मों से छूटने की प्रबल इच्छा से महात्मा अर्णिकाचार्य तुरन्त ही गंगातट पर गए। लोगों के साथ नाव में बैठे। नदी के मध्य में, व्यंतरी बनी उनके पूर्व भव की वैरी पत्नी ने मुनि को आकाश में उछालकर भाले में उनका शरीर पिरो दिया। खून की धारा पानी में बहने लगी । फिर भी आचार्य को अपने शरीर की कोई चिंता न थी और न ही व्यंतरी पर द्वेष था; उनका करुणापूर्ण हृदय वेदना से व्यथित हो उठा 'अहो! मेरे गरम गरम खून से इन बिचारे अप्काय जीवों को कैसी पीड़ा हो रही होगी ।' लगातार खून टिपक रहा था, फिर भी हृदय में षट्काय जीवों की रक्षा करने का पवित्र परिणाम बढ़ता रहा। अन्य को पीड़ा से मुक्त करने की तीव्र भावना के प्रताप से खुद की भवोभव की पीड़ा मिट गई। आचार्य श्री अंतकृत् केवली होकर मोक्ष में चले गए।
'हे मुनिपुंगव ! आपकी निःस्पृहता, स्वदेह के प्रति निर्मम भाव और परपीड़ा को दूर करने की मनोवृत्ति को कोटि-कोटि वंदना ।