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सूत्र संवेदना - ५
श्री श्रीयक श्रेष्ठ सेवाभावी व्यक्तित्व के धारक थे। औचित्य, उदारता, निःस्पृहता, लघुता जैसे गुण उनके जीवन प्रसंगों में स्पष्ट निखर आते है। महाराज ने जब उनको मंत्रीमुद्रा दी, तब उन्होंने निःस्पृहभाव से कहा, 'राजन् ! इसके अधिकारी मेरे बड़े भाई कैसा औचित्य !
स्थूलभद्रजी हैं
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इतिहास में प्रसिद्ध है कि बड़े भाई ने तो नंद का राज्य ठुकराकर आत्मसाम्राज्य संभाल लिया । अतः श्री श्रीयक मंत्रीश्वर बने । मंत्री बनकर भी त्रिकाल जिनपूजा और प्रतिक्रमण कभी नहीं चूके। उन्होंने अति उदारता से सात क्षेत्र में धन का व्यय किया और १०० जिनमंदिर और तीन सौ धर्मशालाएँ बनवाकर श्रावक जीवन को सुवासित किया ।
अनुक्रम से उन्होंने संयम जीवन का स्वीकार किया । पर्युषण पर्व में एक बार बहन यक्षा ने उन्हें समझा-समझाकर उपवास करवाया । उस रात्रि, असह्य क्षुधा वेदना के बीच शुभध्यान में स्थिर होकर वे स्वर्गवासी बने। वहाँ से च्युत होकर वे अल्प समय में मोक्ष प्राप्त करेंगे ।
“ प्रातः काल श्री श्रीयक को प्रणाम करके, उनके जैसा औचित्य, दाक्षिण्य आदि गुण हमें भी प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना करते हैं।"
६. अणिआउत्तो - श्री अणिकापुत्र आचार्य
तीव्र संवेग और परम गीतार्थता का दुर्लभ सुमेल और उसके साथ हृदय की अनुपम कोमलता श्री अणिकापुत्र की विशेषता थी ।
उन्होंने राजरानी पुष्पचूला को प्रतिबोधित कर साध्वी बनाया था । दुष्काल में जब सभी साधुओं ने क्षेत्रान्तर किया तब श्री अणिकापुत्र