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सूत्र संवेदना - ५
करनेवाले धरणेन्द्र के ऊपर प्रभु को अंश मात्र भी राग हुआ अपनेअपने कर्म के अधीन होकर दुःख या सुख देनेवाले दोनों जीवों के प्रति प्रभु समभाव में ही रहे । प्रभु की आंतरिक मनःस्थिति और मध्यस्थता को दर्शानेवाला यह दृश्य अत्यंत आश्चर्यचकित करनेवाला है । इस प्रकार का समभाव या मध्यस्थता का भाव आने पर ही हमें आत्मिक सुख की अनुभूति होगी । ऐसे समता भाव के सुख को प्राप्त करने के लिए प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहना चाहिए,
“प्रभु ! मेरा ना हि कोई प्राणघातक वैरी है और न कोई प्राण अर्पण कर दे वैसा भक्त । फिर भी अति अल्प अनुकूल या प्रतिकूल भावों से मैं सतत व्याकुल रहता हूँ । हे नाथ ! अपनी तरह उदासीन भाव में रहने की शक्ति देकर अस्वस्थता से बचाकर मुझे भी आप अपने जैसी स्वस्थता प्रदान करें ।
आपने तो अपनी शक्ति द्वारा अपने सभी वांछित अर्थ पूर्ण किये हैं। मेरी स्वयं ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि अपनी प्रशस्त इच्छाओं को मैं पूर्ण कर सकूँ इसलिए हे नाथ ! आप मेरी ऐसी सहायता करें, मेरे ऊपर ऐसी कृपा वृष्टि करें, जिसके प्रभाव से मैं भी मेरी शुभ भावना को पूर्ण कर सकूँ ।”