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चउक्कसाय
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प्रभु की इस उत्कृष्ट साधना का वर्णन करते हुए यहाँ कवि उत्प्रेक्षा अलंकार का उपयोग करते हुए कहते हैं कि ऐसे समय में घनघोर बादलों के बीच जैसे बिजली की चमक सुशोभित होती है, वैसे ही बादल और बरसात के बीच प्रभु का देह शोभायमान हो रहा था।
प्रभु का बाह्य तेज तो अवश्य रोमांचित करता है; पर उनके आन्तरिक तेज, निडरता और सत्त्व की कल्पना मात्र से भी रोम-रोम पुल्कित हो उठते हैं । इस घोर उपसर्ग के बीच शरीर से तो दूर प्रभु मन से भी एक क्षण के लिए ध्यान से चलायमान नहीं हुए । आदर्शभूत प्रभु की ऐसी उच्च कोटि की स्थिरता, धीरता, निश्चलता, तेजस्विता को यथार्थ जानकर हमें भी ऐसे गुणों को प्राप्त करने का सुप्रणिधान अवश्य करना चाहिए ।
सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ - वे पार्श्वजिन (हमें) वांछित प्रदान करें।
इस अंतिम पद द्वारा साधक ऐसे अनुपम स्वरूपवान प्रभु से प्रार्थना करता है, “हे प्रभु ! आपको पाकर भौतिक सुख प्राप्त करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, फिर भी काम और क्रोध के वश में आकर इच्छाएँ कब प्रगट हो जाती हैं, पता ही नहीं चलता। हे प्रभु ! इन दोनों शत्रुओं के शिकंजे से मुझे बचाएँ और अपनी तरह मुझे भी अनंत सुख का स्वामी बनाएँ। हे नाथ ! आप बस मेरी इस एक इच्छा को अवश्य पूर्ण करें ।"
यह गाथा बोलते समय स्मृतिपटल पर एक दृश्य खड़ा होना चाहिए, जिसमें एक तरफ़ प्रभु का भवोभव का द्वेषी, प्रभु को उपसर्ग करता हुआ, मेघमाली दिखाई दे और दूसरी तरफ़ प्रभु का परम भक्त धरणेन्द्र दिखाई दे। मरणांत उपसर्ग करनेवाले मेघमाली के ऊपर प्रभु को लेश मात्र भी द्वेष नहीं हुआ; न ही लोकोत्तर भक्ति भाव को धारण