________________
चउक्कसाय
विशेषार्थ :
जसु तणु कंति- कडप्प - सिणिद्धउ कांतिकलाप स्नेह वाला है । (कोमल और मनोहर है | )
-
१५७
जिनके शरीर का
प्रभु के बाह्य सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कविराज कहते हैं कि, नील वर्णवाले प्रभु का देह शुष्क या निस्तेज नहीं था, उनके शरीर का कांतिकलाप अर्थात् उनकी त्वचा से निकला तेजोमंडल अति मनोहर और भव्य था। प्रभु ने अपने रूप और लावण्य की सुरक्षा या उसको और निखारने का कोई प्रयत्न नहीं किया; पर उनकी योगसाधना का प्रभाव ही इतना विशिष्ट था कि उनकी त्वचा किसी भी प्रकार की सेवा शुश्रुषा के बिना अति कोमल और देदीप्यमान थी । ऐसे लावण्य के कारण पार्श्व प्रभु अत्यंत वल्लभ और आकर्षक लगते थे ।
दुनिया के लोग रूप के पीछे पागल होते हैं, रूपवान दिखने के लिए, मिले हुए रूप का रक्षण करने में, उसे संभालने और संवारने में वे जीवन का किमती समय, शक्ति और धन का व्यय करते हैं। इसके बावजूद रूप पुण्याधीन होने के कारण उन्हें अपने प्रयत्न में पूर्ण सफलता नहीं मिलती और यदि सफलता मिल भी जाय तो वह रूप कितने समय तक रहेगा, यह भी निश्चित नहीं कहा जा सकता ।
जब कि, एक करोड़ देव मिलकर भी प्रभु के एक अंगूठे की प्रतिकृति करने में असमर्थ थे । योगसाधना से उपार्जित प्रचंड पुण्य के प्रभाव से प्राप्त हुआ प्रभु का अद्भुत रूप देवों को भी शरमानेवाला था। उन्होंने ऐसे रूप को टिकाने का या उसकी वृद्धि का विचार भी नहीं किया था। ऐसा अनुपम निर्विकारी रूप प्राप्त होने के बावजूद प्रभु उसमें अनासक्त थे। ऐसे रूपसंपन्न प्रभु को याद करके हमें भी नश्वर रूप के प्रति उदासीन भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।