SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ सूत्र संवेदना-५ यह गाथा बोलते समय नीलवर्णवाले, गजगति से चलनेवाले, साधक अवस्था में रहे हुए पार्श्वनाथ प्रभु को हमारी स्मृतिपटल पर अंकित कर हमें सोचना चाहिए कि, "सिद्ध अवस्था की बात तो दूर रही, साधक अवस्था में मेरी तरह काम और क्रोधादि निमित्तों के बीच रहने पर भी प्रभु कभी क्रोधादि के अधीन नहीं हुए, तब भी उन्होंने काम-क्रोध को नाश करने का पुरुषार्थ किया। ऐसे अचिंत्य सामर्थ्य के कारण ही तीनों जगत् के जीव उनको स्वामी के रूप में पूजते हैं। ऐसे अद्भुत स्वामी का सेवक होने के नाते अब जब-जब काम-क्रोधादि के निमित्त मेरे क्षमादि गुणों को नाश करने की कोशिश करेंगे, तब मेरे स्वामी का स्मरण करके, उनकी कृपा प्राप्त कर, कामादि को नाश करने का प्रयत्न करूँगा, तो ही मैं सच्चे अर्थ में उनका सेवक कहलाने योग्य बनूंगा।" जसु तणु-कंति-कडप्प-सिणिद्धउ, ___ सोहइ फणि-मणि-किरणालिद्धउ नंनव-जलहर तडिल्लय-लंछिउ, सो जिणुपासु पयच्छउ वंछिउ ।।२।। अन्वय सहित संस्कृत छाया: यस्य तनु-कान्ति-कलापः स्निग्धक: फणि-मणि-किरणाश्लिष्टः । ननुनव-जलधरः तडिल्लता-लाञ्छित: शोभतेस पार्श्व: जिन: वाञ्छितं प्रयच्छतु ।।२।। गाथार्थ : जिनके शरीर का कान्तिकलाप स्नेहवाला है, जो नाग के फन में रहनेवाले मणि के किरणों से युक्त हैं, जो बिजली से युक्त नए मेघ की तरह सुशोभित हैं, ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु मनोवांछित फल को प्रदान करें ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy