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चउक्कसाय
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को वे कैसे व्यथित करते हैं, वीर और पराक्रमी योद्धा का किस प्रकार पतन करते हैं, कामदेव की इन चेष्टाओं को वे बखूबी जानते थे ।
प्रभु को जन्म से ही दैवी भोग, पाँच इन्द्रियों के श्रेष्ठ कोटि के सुख और सामग्री प्रचुर मात्रा में मिले थे । रूपसुंदरियाँ भी शरमा जाएँ ऐसी रूपवान, गुणवान तथा प्रभु के प्रति अत्यंत प्रीति धारण करनेवाली प्रभावती जैसी पटरानी थी । करोड़ों देव मिलकर भी प्रभु के रूप, गुण, बल आदि की स्पर्धा नहीं कर सकते थे । इस प्रकार प्रभु को सर्वोत्कृष्ट भोग सामग्री और उन भोगों को संपूर्णतया भुगत सके ऐसी सतेज इन्द्रियाँ मिलने पर भी जन्म से ही परम वैरागी प्रभु इन सब लुभाती सामग्री में निःस्पृह ही रहे । इसी कारण इन सभी भावों के प्रति वे उदासीन रहते थे। दृढ़ वैराग्य के कारण उत्कृष्ट कामभोगों का संयोग भी की अति बलवान धर्मशक्ति का नाश करने में असमर्थ था ।
प्रभु
पवन की एक लहर से सामान्य दीपक बुझ जाता है; परन्तु दावानल तूफान के बीच में रहकर भी नहीं बुझता बल्कि अधिक प्रजवलित होता है । उसी प्रकार तुच्छ भोग सामग्री का योग होते ही सामान्य मनुष्य का वैराग्य नष्ट हो जाता है, जबकि मन को आह्लादित करनेवाली और इन्द्रियों को उत्तेजित करनेवाली बलवान भोग सामग्री प्राप्त होने के बावजूद भगवान का वैराग्य नष्ट न होकर और भी प्रजवलित होता है । 4 3. यदा मरुन्नरेन्द्रश्री-स -स्त्वया नाथोपभुज्यते ।
यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ।। १३ ।।
अध्यात्मसार ५ -१३
हे नाथ ! देव-देवेन्द्र या नरेन्द्र की लक्ष्मी का भी जब आपको उपभोग करना पड़ा था, तब भी वहाँ आपको रति नहीं हुई; वहाँ भी आप तो वैरागी ही रहे ।
4. धर्म्मशक्तिं न हन्त्यत्र, भोगयोगो बलीयसी ।
हन्ति दीपापहो वायु-र्ज्वलन्तं न दावानलम् ।।२०।।
अध्यात्मसार ५ - २०
दीपक के प्रकाश का नाश करनेवाला पवन जैसे दावानल को ज्वलंत बनाता है, वैसे बलवान भोगों का योग होने पर भी आपकी धर्मशक्ति (वैराग्य) नष्ट नहीं होती; पर जाज्वल्यमान हो उठती है ।