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सूत्र संवेदना - ५
करवाती हैं । अश्लीलता भरी वाणी या व्यवहार भी इस कामवासना का ही परिणाम है।
इस कामवासना को ही शास्त्रकार कामदेव, मदन, मकरध्वज, कुसुमायुध वगैरह नाम से संबोधित करते हैं और उसके निमित्तों को कामदेव के बाणों के रूप में बताते हैं ।
कामदेव के पाँच इन्द्रियों के विषय रूपी बाण इस संसार में सर्वत्र प्रसारित हैं । इन मर्मघाती बाणों को नहीं जानने वाले सामान्य लोग तो उसके भोग बनते ही हैं, पर साथ ही लोक में बुद्धिमान और बलवान माने जानेवाले वीर पुरुष भी इस बाण के प्रहार से नहीं बच पाते; इन बाणों को फूल की शय्या मानकर उनको ढूंढते फिरते हैं, मिलने पर इसे सजाते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए सैंकड़ों प्रयत्न कर सतत आकुल-व्याकुल रहते हैं ।
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संसारी जीवों की ऐसी दशा से एकदम विपरीत दशा का अनुभव करनेवाले पार्श्वनाथ प्रभु सम्यग्दर्शन आदि गुणों से अलंकृत थे । योग की छुट्टी दृष्टि के स्वामी प्रभु जन्म से ही परम वैरागी थे। कामदेव के बाण कितने ज़हरीले हैं, लोगों के हृदय में प्रवेश कर वे किस प्रकार उनके भाव प्राणों का नाश करते हैं, स्वस्थ और निश्चित मनुष्य 2. छट्ठी दृष्टि - आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखकर आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने योग की आठ दृष्टियाँ बताई हैं। दृष्टि अर्थात् सम्यक् श्रद्धा के सहित अवबोध। ऐसे बोध से असत् (अनुचित) प्रवृत्ति का नाश होता है और सत् ( उचित ) प्रवृत्ति की शुरूआत होती है ।
उसमें छट्ठी दृष्टि कान्तादृष्टि है जिसमें मनुष्य का तत्त्वबोध ताराओं की प्रभा जैसा होता है अर्थात् ये तत्त्वबोध स्वाभाविक रूप से स्थिर होता है । इस दृष्टि के अनुष्ठान निरतिचार होते हैं। उपयोग शुद्ध होता है। विशिष्ट अप्रमत्त भाव होता है। गंभीर और उदार आशय होता है। तीर्थंकर परमात्मा जन्म से ही ऐसी कान्तादृष्टि के स्वामी होते हैं। बचपन से ही उनको भोगों में रस नहीं होता। वे गंभीर, धीर, उदात्त, शांत, मन से विरक्त, विवेकी और औचित्यवाले होते हैं।