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सूत्र संवेदना-५ पार्श्वनाथ भगवान एक बलवान मल्ल के समान थे, तो क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय प्रतिमल्ल थे अर्थात् प्रतिस्पर्धी बलवान योद्धा थे। इन चार कषाय रूपी प्रतिमल्लों ने अनादिकाल से संसार के मोहाधीन लोगों को अपने बल से अपनी इच्छानुसार कठपुतलियों की तरह नचाकर उनके भाव प्राणों का प्रतिक्षण नाश किया है । कभी थोड़ा-बहुत सुख देकर महा दुःख के गड्ढे में पटक दिया है, तो कभी सामने से ही प्रहार करके अनेक प्रकार की पीड़ाएँ दी हैं । इन कषायों ने संसार के जीवों को एक क्षण भी शांति, समाधि या स्वस्थता का अनुभव नहीं करने दिया । फिर भी, अविवेकी संसारियों को ये कषाय पीड़ादायक या दुःखदायक नहीं लगते । वे उन्हें अपना शत्रु मानना तो दूर बल्कि उनको मित्र के समान संभालते है । अज्ञानी जीवों की यह मान्यता रहती है कि कषायों द्वारा ही किसी से काम करवा सकते हैं, दुनिया में मान-मरतबे से जीया जाता है... इत्यादि । अतः कषायों को आवश्यक मानकर, उन्हें परम सुख का कारण समझकर, वे उन्हें पुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं ।
पार्श्वनाथ प्रभु बलवान तो थे ही, साथ ही वे बुद्धिमान, परम विवेकी एवं दीर्घ द्रष्टा थे । इसी कारण वे कषायरूपी शत्रु को शत्रु के रूप में अच्छी तरह से पहचान कर उनसे होनेवाली पीड़ाएँ देख सकते थे । अनंतकाल से संसार के जीवों और स्वयं को भी इन कषायों ने किस प्रकार दुःखी किया है, उसका उनको पूरा ज्ञान था । अतः उन्होंने इन कषायों के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए अनेक भवों से युद्ध आरम्भ किया था । कमठ के जीव को निमित्त बनाकर दस-दस भव तक क्रोध नामक शत्रु ने प्रभु के ऊपर अनेक प्रहार करने के प्रयत्न किए, परन्तु प्रभु ने उसे कहीं भी सफल नहीं होने दिया । अंतिम भव में मेघमाली के रूप में मरणांत उपसर्ग द्वारा क्रोध ने प्रभु को उसके अधीन होने के लिए