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जसु तणु-कंति - कडप्प सिणिद्धउ, सोहइ-फणि-मणि-किरणालिद्धड । नं नव-जलहर तडिल्लय-लंछिउ, सो जिणु पासु पयच्छउ वंछिउ ।।२।।
मूल गाथा :
चउक्कसाय
चउक्कस्साय-पडिमल्लुल्लूरणु, दुज्जय-मयण-बाण-मुसुमूरणु । सरस-पियंगु - वण्णु गय- गामिउ, जयउ पासु भुवणत्तय - सामिउ || १ ||
अन्वय :
चतुष्कषाय- प्रतिमल्लत्रोटनः दुर्जय-मदन-बाणभञ्जनः ।
सरस-प्रियङ्गु-वर्णः गज-गामी, पार्श्व भुवन-त्रय- स्वामी जयतु ।।१।।
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गाथार्थ :
चार कषायरूप प्रतियोद्धाओं का नाश करनेवाले, मुश्किल से परास्त कर सकें ऐसे कामदेवता के अजेय बाणों को तोड़नेवाले, सरस प्रियंगु के समान रंगवाले, हाथी जैसी गतिवाले, तीन भुवन के नाथ पार्श्वनाथ प्रभु जय को प्राप्त करें ।
विशेषार्थ :
चउक्कस्साय- पडिमल्लुल्लूरणु - चार कषायरूप प्रतियोद्धाओं का नाश करनेवाले । (पार्श्वनाथ प्रभु जय को प्राप्त करें ।)
इस श्लोक में पाँच विशेषणों द्वारा प्रभु पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। प्रथम विशेषण द्वारा प्रभु के अद्वितीय पराक्रम को दर्शाया गया है ।