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________________ १४८ १४८ सूत्र संवेदना-५ जाएँ इस हेतु से उनके लिए देवसिय-प्रतिक्रमण के अंत में, सामायिक पारते समय इस सूत्र के द्वारा चैत्यवंदन करने का विधान किया है। दिन में तो साधक स्वाध्याय आदि द्वारा अनादिकाल के कुसंस्कारों को सावधानीपूर्वक दूर करने का प्रयत्न करता है, परन्तु निद्राधीन अवस्था में वैसी सावधानी रखना कठिन है। इसलिए पहले ही इस सूत्र के द्वारा साधक निष्कषाय ऐसे पार्श्वप्रभु का ध्यान करके अपने चित्त को तैयार करता है, जिससे सुषुप्त अवस्था में भी उस ध्यान के संस्कारों के कारण सजग रहकर काम-क्रोधादि दोषों से बच सकें । प्रभु का ऐसा स्वरूप चित्त में सतत उपस्थित रहने के कारण कषायनोकषाय आदि काबू में रहते हैं, विषयों की आसक्ति टलती है और संयम-वैराग्य आदि गुणों की अभिवृद्धि होती है। परिणामस्वरूप घातीकर्म नष्ट होते हैं और साधक अंत में केवलज्ञानादि गुणों को पाकर मोक्ष के महासुख को प्राप्त कर सकता है। यह सूत्र मुख्यतया रात्रि में बोला जाता है । कामक्रोध आदि शत्रु के आक्रमण से बचने और लड़ने के लिए साधक इसी सूत्र को बार-बार दोहराकर प्रभु के ध्यान में लीन बन सकता है। अपभ्रंश भाषा में रचा हुआ यह अतिप्राचीन सूत्र विक्रम की अठारहवीं सदी में पू. उपाध्याय मेघविजयजी गणिवर ने प्राचीन ग्रंथों से उद्धृत किया है, ऐसा उल्लेख मिलता है। मूल सूत्र : चउक्कसाय-पडिमल्लल्लूरणु, दुज्जय-मयण-बाण-मुसुमूरणु । सरस-पियंगु-वण्णु गय-गामिउ, जयउ पासु भुवणत्तय-सामिउ।।१।।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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