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________________ चउक्कसाय १४७ प्रभु की साधना बताकर उत्तरार्ध में प्रकृष्ट पुण्योदय से प्राप्त हुए प्रभु के अलौकिक देह का वर्णन किया है । प्रभु का अपूर्व सौन्दर्य यह सूचित करता है कि, इच्छा हो या ना हो सभी जीवों को सुखी करने की भावना और उत्तम साधना से ऐसे पुण्य का बंध होता है जिसकी बराबरी करने में कोई भी समर्थ नहीं होता। दूसरे श्लोक में स्तवकार ने प्रभु के अद्भुत रूप पर प्रकाश डाला है। अंतरंग शत्रुओं को परास्त करनेवाले पार्श्वनाथ प्रभु के शरीर से प्रस्फुटित हो रहे अपूर्व तेजोमंडल (aura) के सुंदर वर्णन द्वारा स्तवनकारश्री यह समझाते है कि अंतरंग शत्रुओं को परास्त करने के कारण जब चित्त शांत-प्रशांत बन जाता है, तब बाह्य और अंतरंग समृद्धि तथा सौंदर्य खिल उठते हैं । अंत में इस छोटे सूत्र में स्तवकार ने प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहा है, 'हे प्रभु ! हमें इच्छित ऐसा मोक्ष पद दें, मोक्ष न मिलने तक आत्मिक आनंद की अनुभूति हो और उस आनंद को प्राप्त करने के लिए आप जैसे आप्त पुरुष का हृदय में सदा वास हो।' यह स्तुति दिन के अंतिम चैत्यवंदन' के रूप में बोली जाती है। श्रमण-श्रमणी भगवंत संथारा पोरसी के वक्त सातवाँ चैत्यवंदन करते हैं और श्रावक श्राविकाएँ सोते समय सातवाँ चैत्यवंदन करना भूल न 1. साधु के लिए सात चैत्यवंदन श्रावक के लिए सात चैत्यवंदन १. प्रभात के प्रतिक्रमण में १. प्रभात के प्रतिक्रमण में २. जिनमंदिर में २. प्रभात की पूजा में ३. भोजन के पहले ३. मध्याह्न की पूजा में ४. भोजन के बाद ४. संध्या की पूजा में ५. देवसिक प्रतिक्रमण में ५. सायंकाल के प्रतिक्रमण में ६. शयन के वक्त संथारा पोरसी में ६. प्रतिक्रमण पालते हुए ‘चउक्कसाय' का ७. सुबह उठकर जगचिंतामणि का ७. सुबह-जगचिंतामणि का
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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