________________
१४४
सूत्र संवेदना-५ अनेकान्त से विचार किया जाता है कि, जैसे यह मेरा पति है वैसे ही किसी का पुत्र भी है, किसी का भाई भी है और किसी का पिता भी है तब उस व्यक्ति के प्रति उसकी अपेक्षाएँ बहुत अंश तक कम हो जाती हैं
और परिणाम स्वरूप उसका चित्त स्वस्थ रहता है। हृदय की विशालता का आधार इस अनेकान्त के सिद्धान्त में निहित है।।
इसी प्रकार संसार की सभी चीजें नित्य भी हैं और अनित्य भी । अनेकान्त सिद्धान्त का त्याग कर मात्र नित्य मानने पर वस्तु के विनाश में शोक, संताप, दुःखादि रूप मनोभावों का उदय होता है और यदि अनेकान्त के अनुसार वस्तु की नित्यता-अनित्यता मान ली जाए तो उसकी उपस्थिति में तीव्र हर्ष और अनुपस्थिति में तीव्र शोक नहीं होता। इस प्रकार स्याद्वाद का सिद्धान्त अपनाकर जीवन जीने से हृदय की विशालता
और चित्त की स्वस्थता प्रगट होती है और वस्तु या व्यक्ति का सर्वतोमुखी बोध होता है जिसके फलस्वरूप कहीं पक्कड़ या कदाग्रह नहीं रहता। अन्य की अपेक्षाओं को उनके दृष्टिकोण से देखने की क्षमता प्रगट होती है। जिससे द्वन्द्व शांत हो जाते हैं और क्लेश-कलह, पैशुन्य जैसे क्रूर भावों को मन में कहीं भी स्थान नहीं मिलता। सर्वत्र मैत्री, प्रमोद, समता, माध्यस्थ्य आदि शुभ भाव सक्रिय रहते हैं।
स्याद्वाद-अनेकान्तवाद को अपनाकर जगत् को देखा जाए, तो ही जगत् व्यवस्था लागु हो सकती है । आत्मादि पदार्थों को किसी एक दृष्टिकोण से अपनाने के कारण दुनिया में परस्पर विरोधी अनेक दर्शन अस्तित्व में आये हैं। जैनशासन की अनेकांत दृष्टि से अगर ये ही आत्मादि पदार्थ देखे जाएँ, तो सभी मतों का समावेश जैनदर्शन में हो जाता है । इसलिए उपाध्यायजी भगवंत ने कहा है कि, “सर्व दर्शन तणु मूळ तुज शासनम्।' (सभी दर्शनों का आधार-मूल तेरा शासन है)