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________________ लघु शांति स्तव सूत्र में देखने को मिलती हैं; परन्तु जैन ग्रंथों में जिस प्रकार से उन्हें बताया गया है, युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा उनकी जिस तरह सिद्धि की गई है और आत्मशुद्धि के जो उपाय बताए गए हैं, उन सब को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि वे सर्वश्रेष्ठ कक्षा के हैं। अतः साधक उनकी गहराई तक सहजता से पहुँच सकता है । १४३ सुख के सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहंत परमात्मा द्वारा बताया गया यह एक धर्म ऐसा है कि, जिसके सिद्धांतों में पूर्वापर में कहीं विरोध देखने को नहीं मिलता। सिद्धांत प्रस्तुत करना एक बात है और उसके अनुरूप व्यवहार करना दूसरी बात । जैनशासन अहिंसा और आत्मिक ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत को बताने के साथ उन सिद्धांतों को पुष्ट भी करता है । व्यवहारिक जीवन में उन्हें अपना सके ऐसा क्रिया मार्ग भी बताया है। जैनाशासन में बताई गई सूक्ष्म आचारसंहिता, उससे दर्शाई गई विचारशैली को पुष्ट करनेवाली होने से उसके प्रत्येक आचार स्व एवं पर के सुख का कारण बनते हैं, परन्तु अपने सुख के लिए अन्य दुःख का कारण नहीं बनते । के इस संसार की वास्तविकता को प्रगट करने के लिए जैनदर्शन ने स्याद्वाद का एक सिद्धांत संसार के समक्ष प्रस्तुत किया है । स्याद्वाद सिद्धान्त ऐसा कहता है कि संसार में कहीं भी एकान्त नहीं है । उसकी कोई वस्तु एक धर्मवाली नहीं है; हर एक वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं, ऐसी अनेक धर्म धारण करनेवाली वस्तु में किसी एक धर्म की स्थापना करने से राग-द्वेष, गलत पक्कड़ आदि मलिन भाव का स्पर्श होता है । परन्तु जब वह वस्तु दूसरों के दृष्टिकोण से देखी जाती है, तो उसमें रागादि होने की संभावना कम हो जाती है । उदाहरणार्थ कोई स्त्री जब किसी निश्चित पुरुष में ‘यह मेरा पति है' ऐसा भाव करती है, तब उसे राग, ममत्व आदि मलिन भाव उत्पन्न होते हैं। वहाँ हक का दावा लगाया जाता है । जब ,
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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