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सूत्र संवेदना-५ रख सकता है। कोई भी परिस्थिति उसे बेचैन नहीं कर सकती। इसके विपरीत जो प्रभु की पूजा नहीं करते, वे अनुकूलता में और प्रतिकूलता में रति या अरति के विकारों से अपने मन को सदा व्याकुल ही रखते हैं। प्रसन्नता तो उनसे कोसों दूर रहती है।
जिज्ञासा : प्रभु पूजा से चित्त प्रसन्न रहता है ऐसा सदैव अनुभव नहीं होता; परन्तु अनुकूल व्यक्ति या वातावरण से चित्त प्रसन्न रहता है, ऐसा सतत अनुभव होता है, ऐसा क्यों ?
तृप्ति : अनुकूल व्यक्ति, वातावरण या संयोग चित्त को प्रसन्न नहीं करते, बल्कि राग या रति के विकार को उत्पन्न करते हैं। मोहमूढ़ जीव इस विकार को चित्त की प्रसन्नता या शाता मानते हैं। जैसे नासमझ जीव शरीर की सूजन को शरीर की पुष्टि मानते हैं, वैसे ही मोहाधीन मनुष्य अनुकूलता की रति को चित्त की प्रसन्नता या सुख मानते हैं। वास्तव में तो तब भी चित्त प्रसन्न नहीं होता क्योंकि तब प्राप्त हुए पदार्थों को संभालने की चिंता, उनकी चोरी न हो जाए या नाश न हो जाए ऐसा भय, ज़्यादा पाने की इच्छा वगैरह क्लेशों से चित्त व्याकुल ही रहता है और कषायों से व्याकुल चित्त कभी भी प्रसन्न नहीं होता।
चित्त की वास्तविक प्रसन्नता तो कषायों के अभाव से ही होती है और कषायों का अभाव प्रभुपूजा से ही होता है। इसीलिए प्रसन्नता का कारण अनुकूल संयोग नहीं, पूजा है।
अनुकूल व्यक्ति या वातावरण से हुई चित्त की रति ज़रा सी प्रतिकूलता आते ही नष्ट हो जाती है। जब कि प्रभु पूजा से प्राप्त हुई चित्त की प्रसन्नता प्रतिकूल संयोग आने पर भी टिकी रहती है क्योंकि प्रतिकूलता को पचाने की, नाश करने की, सहर्ष स्वीकार करने की