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लघु शांति स्तव सूत्र
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भी वह दुःखी या दीन नहीं होता । उसका मन सुप्रसन्न ही रहता है क्योंकि प्रभु भक्ति के कारण उसका चित्त निर्मल बन जाता है। ऐसे निर्मल चित्त से प्रभु द्वारा दर्शाए गए कर्मों के सिद्धांत उसे स्पष्ट समझ में आते हैं, उनके ऊपर दृढ़ श्रद्धा प्रगट होती है और उन्हें जीवन में उतारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है। अतः आपत्ति आने पर साधक समझता है कि, 'मेरे पूर्व में बाँधे हुए कर्मों का ही यह फल है। वर्तमान की परिस्थिति मेरी भूतकाल की भूलों का परिणाम है। यह आपत्ति मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती बल्कि यह तो मेरे कर्मों का नाश कर मेरे बंधनों को शिथिल करने का श्रेष्ठ अवसर है।' इस तरह विचार कर साधक चित्त की स्वस्थतापूर्वक सभी आपत्तियों को सहन करके, मन को सदा प्रसन्न रख सकता है। ऐसी चित्त की प्रसन्नता ही प्रभु पूजा का मुख्य फल है। इसलिए आनंदघनजी महाराज ने श्री ऋषभदेव भगवान के स्तवन में कहा है कि
"चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु, पूजा अखंडित एह ।" प्रभु की पूजा करनेवाले की चित्त-प्रसन्नता अखंडित रहती है क्योंकि प्रभु की पूजा से राग एवं इच्छाएँ खटकने लगती हैं। फलतः इच्छाएँ घटती जाती हैं और इच्छाओं के घटने से चित्त प्रसन्न रहने लगता है क्योंकि बाह्य अनुकूलता का राग और प्रतिकूलता का द्वेष मंद हो जाता है, गुणों का राग तीव्र और दोषों का पक्ष कमज़ोर होता है, विषय के विकार घटते हैं और वैराग्यादि भाव प्रबल हो जाते हैं, कषायों के क्लेश शांत हो जाते हैं और क्षमादि गुणों की वृद्धि होती है, संसार की वास्तविकता समझ में आती है और मोक्ष के प्रति आदर बढ़ता है।
यही कारण है कि, प्रभु का पूजक सभी स्थितियों को सहजता से स्वीकार कर सकता है। हर एक स्थिति में अपने मन की समता बनाए