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सूत्र संवेदना-५ है कि सामान्य प्रकार के उपसर्ग तो दूर होते ही हैं, मरणांत उपसर्ग भी पल भर में दूर हो जाते हैं। आपत्ति के स्थान में संपत्ति की प्राप्ति हो जाती है। जैसे कि अमरकुमार, श्रीमती, सुदर्शन सेठ वगैरह अनेक महासतियों और महापुरुषों को मरणांत उपसर्ग आए, परन्तु परमात्मा का ध्यान करने से उनके वे उपसर्ग तो दूर हो ही गए और बदले में अनेक प्रकार की अनुकूलताएँ भी प्राप्त हुईं। छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः - विघ्न की लताएँ नाश होती हैं ।
कोई भी कार्य करते हुए उसमें जो रुकावट या विलंब आए, उसे विघ्न कहते हैं । धर्मकार्यों में अनेक विघ्न आने की संभावना रहती है, जिसे देख भास ने ‘स्वप्नवासवदत्तम' नाटक में कहा है 'श्रेयांसि हि बहुविघ्नानि भवन्ति ।' पूर्व भवों में जीव ने जो पापकर्मों का बंध किया है, उन पापकर्मों के कारण श्रेय कार्यों में विघ्नों की बहुत संभावना रहती है । भगवान की भक्ति से विघ्नों का नाश होता है और जीव कल्याणकारी मार्ग में निर्विघ्न आगे बढ़ सकता है । कदाचित् प्रबल कर्म के उदय से बाह्य विघ्नों का विनाश न हो तो भी अंतर से विघ्नों से निलेप रहकर शुभ ध्यान में एकाग्र बनकर आनंद को प्राप्त करता हुआ जीव मोक्ष के महासुख तक पहुँच सकता है।
मनः प्रसन्नतामेति - मन की प्रसन्नता प्राप्त करता है । . भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ फल है - मन की प्रसन्नता । विघ्न दूर हों या न हों, उपसर्ग शांत हों या न हों, परन्तु चित्त प्रसन्न रहे, यही भक्ति का निश्वत एवं परम फल है।
प्रभु भक्ति के प्रभाव से साधक में ऐसा क्षयोपशम प्रगट होता है कि प्रायः उसके जीवन में कोई आपत्ति नहीं आती और अगर आ भी जाए तो भी वह साधक के मन को बिगाड़ नहीं सकती अर्थात् उसे दुःख आए तो