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लघु
कृतार्थ हो गया हूँ। अब साधना क्षेत्र में आनेवाले विघ्नों को शांत करने के लिए इस स्तव के एक-एक पद को मैं इस प्रकार भावित करूँगा कि अनंत गुणों के विधान शांतिनाथ प्रभु, उनके प्रति अहोभाववाली जयादेवी और ये मंत्रपद मेरे मन मंदिर में बस जाएँ; जिनके द्वारा मुझे और प. पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज को भी शांतिपद की शीघ्र प्राप्ति हो सके ।” अवतरणिका :
शांति स्तव सूत्र
अन्वय :
स्तव के अंत में सर्वत्र मांगलिक रूप से बोली जानेवाली दो गाथाओं का उल्लेख किया गया है।
गाथा :
उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः ।
मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे ।। १८ ।।
गाथार्थ :
जिनेश्वरे पूज्यमाने, उपसर्गाः क्षयं यान्ति ।
विघ्नवल्लय: छिद्यन्ते, मनः प्रसन्नतामेति ।।१८।
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जिनेश्वर के पूजन से उपसर्गों का नाश होता है, विघ्न दूर होते हैं और चित्त की प्रसन्नता प्राप्त होती है ।
विशेषार्थ :
उपसर्गाः क्षयं यान्ति - उपसर्ग नाश होते हैं।
उपसर्ग अर्थात् आफ़त, पीड़ा, संकट या दुःखदायक घटना । शुद्ध भाव से परमात्मा की पूजा करने से इस प्रकार के पुण्य का उदय होता