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सूत्र संवेदना-५ रचना मैंने मात्र मारी, मरकी आदि रोग के नाश के लिए ही नहीं की है, बल्कि इस स्तवना के पठन, श्रवण और भावन से मैं और सभी साधक शांति के स्थानभूत मोक्ष तक पहुँच सकें, इस हेतु से की है।'
प.पू.मानदेवसूरीश्वरजी महाराज वीरप्रभु की परंपरा में हुए एक प्रभावक आचार्य थे। शास्त्रों में कहा गया है कि : १. उपद्रव, २. दुर्भिक्ष, ३. दुश्मनी चढ़ाई, ४. दुष्ट राजा, ५. भय, ६. व्याधि, ७. मार्ग में अवरोध, ८. कोई विशिष्ट कार्य; ये आठ तथा दूसरे कोई कारण उत्पन्न होने पर मंत्रवादी आचार्य भगवंत मंत्र का उपयोग करके दर्शनाचार के प्रभावना नाम के आठवें आचार का पालन करते हैं। इस प्रकार प्रभावक पुरुषों द्वारा अपने सम्यग्दर्शन गुण की आराधना होती है। वैसे ही स्तवनकारश्रीने, व्यंतरकृत उपद्रव टालने के लिए बनाई गई इस रचना के द्वारा अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल करने के साथ-साथ शांतिपद स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करने की अभिलाषा भी व्यक्त की है।
इस स्तव-रचना का मुख्य निमित्त व्यंतर से किया गया उपद्रव का निवारण करना तो था ही, पर साथ ही प.पू.मानदेवसूरीश्वरजी महाराज चाहते थे कि इस स्तव के पठन, श्रवण और भावन से श्रीसंघ के सभी उपद्रव शांत हों और श्रीसंघ तथा वे भी इस स्तव के माध्यम से शाश्वत शांति के स्थानरूप मोक्ष तक पहुँचे । इसलिए मोक्षार्थी साधक को विधिपूर्वक इस स्तव का पठन-पाठन करने की खास ज़रूरत है। यह गाथा बोलते हुए साधक को सोचना चाहिए...
“प.पू.मानदेवसूरीश्वरजी महाराज का मेरे ऊपर तथा श्रीसंघ के ऊपर कितना उपकार है कि उन्होंने ऐसे सुंदर स्तव की रचना की। इस स्तव को प्राप्त कर मैं