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लघु शांति स्तव सूत्र
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अग्नि या ज़हरीले पदार्थों का भय नहीं है; जन्म और मृत्यु की कोई पीड़ा नहीं है; शत्रु या चोरादि का भी डर नहीं है; संक्षेप में जहाँ कर्मकृत् या कषायकृत् कोई पीड़ा नहीं है, वैसी शांति के स्थानभूत सिद्धिगति की प्राप्ति होती है।
ऐसा कहने द्वारा स्तवकार श्री बताते हैं कि, इस स्तव से व्यंतरादिकृत उपद्रव या जल, अग्नि वगैरह के उपद्रव शांत होते ही हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; परन्तु जो विधिपूर्वक इसको पढ़ते हैं, सुनते हैं या भक्ति करते हैं वे जहाँ किसी प्रकार की अशांति नहीं है, चिरकाल के लिए मात्र शांति, शांति और शांति ही है, ऐसी सिद्धिगति को भी प्राप्त करते हैं।
सूरिः श्रीमानदेवश्च श्री मानदेवसूरीश्वरजी महाराज भी (शांति के स्थान को प्राप्त करें 1)
" जो इस स्तव का पठन आदि करते हैं वे तो शांतिपद को प्राप्त करें तथा साथ-साथ इस स्तवन के कर्त्ता प. पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज भी शांति के स्थान को प्राप्त करें!" इन शब्दों से स्तवनकार श्री ने एक तो अपने नाम का निर्देश किया है और साथ में स्वयं भी शांतिपद 51 प्राप्त करें ऐसी भावना व्यक्त की है। ऐसा कहकर वे बताते हैं कि, 'इस स्तव की
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51. "जया-विजया-ऽपराजिताभिधानाभिर्देवीभिर्विहितसान्निध्ये निरतिशयकरुणाकोमलचेतोभिः श्रीमानदेवसूरीभिः सर्वत्र सकलसङ्घस्य सर्वदोषसर्गनिवृत्त्यर्थं एतत् स्तोत्रं कृतं तैः साकं ततः प्रभृति सर्वत्र अस्य लघुशान्तिस्तोत्रस्य प्रत्यहं स्वयमध्ययनाद् अन्यसकाशात् श्रवणाद् वा अनेनाभिमन्त्रितजलच्छटादानाच्च श्रीसङ्घस्य शाकिनीजनितमरकोपद्रव उपशान्तिं गतः, सर्वत्र शान्तिः समुत्पन्ना, ततः प्रभृति यावत् प्रायः प्रत्यहं लघुशान्तिः प्रतिक्रमणप्रान्ते प्रोच्यते इति संप्रदायः ।" टीका के 'सर्वदोषसर्गनिवृत्यर्थं ' शब्दों के द्वारा यह सूचित किया गया है कि स्तवकार श्री सकल संघ को सभी दोषों से मुक्त करवाकर मोक्ष सुख प्राप्त करवाने की भावना रखते थे और इसी कारण आज तक प्रतिक्रमण में शांति बोलने की प्रथा है ।
- श्री सिद्धिचन्द्रगणीकृत टीका