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सूत्र संवेदना - ५
यहाँ ‘यथायोगम्' पद रखकर स्तवनकार विशेष प्रकार से यह कहना चाहते हैं कि, इस स्तव को अविधि से, बिना उपयोग के जैसे तैसे बोलने से कोई विशेष लाभ नहीं होता । श्रुत प्राप्त करने की विधि जानकर उपयोगपूर्वक इस स्तव का पठन-श्रवण या भावन हो तभी यह लाभकारी बनता है।
शृणोति भावयति वा यथायोगं - जो पुरुष योग्य प्रकार से इस स्तव को सुनता है अथवा उसका भावन करता है।
शृणोति जो साधक इस स्तव को अत्यंत उपयोगपूर्वक सुनता है, सुनते हुए जिसे आनंद होता है, हृदय में संवेग आदि के विशेष भाव प्रगट होते हैं, वह ही इसके फल को प्राप्त कर सकता है।
भावयति - पढ़े और सुने हुए इस स्तव को आत्मसात् करने के लिए जो योग्य प्रकार से इसका भाव 50 करता है अर्थात् पुनः पुनः इस स्तव का स्मरण करता है; उसके एक-एक पद का चिन्तन-मनन करता है; उसमें बताए गए पदार्थ और मंत्रों से अपनी आत्मा को भावित करता है, वही इस स्तव के फल को प्राप्त करता है ।
स हि शान्तिपदं यायात् - वह शांति के स्थान को प्राप्त करें ।
इस स्तवन को जो निरंतर योग्य तरीके से पढ़ता है, भावपूर्वक सुनता है और योग्य प्रकार से उसका भावन करता है उस साधक को जहाँ अशांति, रोग, शोक, आधि, व्याधिजन्य कोई पीड़ा नहीं है; जहाँ डाकिनी, शाकिनी या व्यंतरादिकृत कोई उपद्रव नहीं है; जहाँ जल, 50. मंत्रशास्त्र में 'भाव' शब्द दो अर्थ में प्रयोग होता है। एक मंत्र के अर्थ का विचार करना और दूसरा मंत्रयोग के परम ध्येय रूप 'महाभाव' (समाधि) की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना; यहाँ ये दोनों अर्थ प्रस्तुत हैं। इष्ट देवता का शरीर मंत्रमय होता है, उनका चरणों से लेकर मस्तक पर्यंत ध्यान करना, मंत्रार्थ भावना कहलाता है।
• प्रबोध टीका