________________
लघु शांति स्तव सूत्र
१२९
मंत्ररूप मोती निकाले, उन मोतियों पर मेरी नज़र पड़ी और मैंने तो मात्र इन मंत्ररूप मोतियों को शांतिनाथ भगवान के स्तव रूप माला में गूँथा है ।”
इस कथन के द्वारा स्तवनकार श्री के हृदय के दो उत्तम भाव सूचित होते हैं : एक तो उनकी लघुता और दूसरा उनकी सर्वज्ञ के वचन पर श्रद्धा । प.पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज शक्तिसंपन्न थे और उनका पुण्य प्रभाव भी अचिन्त्य था । जया - विजया जैसी देवियाँ सतत उनकी सेवा में हाज़िर रहती थीं। वे चाहते तो स्वयं स्वतंत्र रूप में स्तुति रच सकते थे; लेकिन उन्होंने पूर्वसूरियों द्वारा रचित ग्रंथों में से मंत्र उद्धृत कर इस शांतिस्तव की रचना की। इसमें पूज्यों के प्रति उनका विनय, श्रद्धा, बहुमान आदि प्रकट होते हैं और अपनी लघुता का भाव स्पष्ट व्यक्त होता है।
वे स्वयं समझते हैं कि आखिर तो वे छद्मस्थ हैं। अतीन्द्रिय ऐसे मोक्षमार्ग को केवली के बिना कोई स्पष्ट देख नहीं सकता । इसीलिए केवली के वचन के सहारे चलने से ही हित हो सकता है । सर्वज्ञ के वचनों का सहारा लेकर पूर्व पुरुषों ने जो शास्त्र रचे हैं, उन शास्त्रों में से ये मंत्र लिये गये हैं। ऐसा कहकर उन्होंने इस स्तव और सर्वज्ञ के वचन के प्रति मुमुक्षुओं की श्रद्धा को दृढ़ किया हैं ।
सलिलादिभय-विनाशी शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् (यह शांतिस्तव) भक्तिवाले जीवों के पानी आदि भयों का नाश करनेवाला और शांति आदि देनेवाला है।
-
मंत्रयुक्त इस स्तव की शक्ति क्या है, यह बता हुए अब स्तवकार श्री कहते हैं कि, शांतिनाथ भगवान के प्रति जो भक्ति भाव धारण करते हैं और भाव से जो इस मंत्र की आराधना करते हैं उन भक्तों के लिए यह